Tuesday, August 23, 2011

भारत  भाग्य  विधाता.......  
               
स्वतंत्रता की ६४ वीं वर्षगांठ मनाने का दिवस आ ही गया. देश को आजाद हुए १५ अगस्त को ६४ वर्ष हो जायेंगे. एक समय था जब महीनों पूर्व से  ही  आजादी के इस पर्व को धूम-धाम से मनाने की तैयारी आरंभ हो जाती थी. शहरों से लेकर गांवों तक में रहने वाले बच्चों, बूढों  और नौजवानों आदि सभी के चेहरों पर  देश भक्ति का जूनून और एक उल्ल्हास स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता था. गली कूंचे तक समर्थानुसार सजाये-सँवारे जाते थे. तिरंगे से सजे हुए स्थान-स्थान पर तोरण द्वार, तिरंगी झंडियों और गुब्बारों से सजीं गलियां और बाज़ार, आसमान तो तिरंगी पतंगों से पट सा जाता था. ऐसा लगता था मानों समस्त  भरतखंड ही तिरंगे  रंग में सराबोर हो गया हो.
                                  
आज समय के  साथ-साथ  हालत  भी  बदल बदल गए हैं.  देश में व्याप्त आकंठ भ्रष्टाचार और  जान-लेवा महंगाई के कारण उपजी तमाम समस्याओं ने आम जन-मानस की सोच भी  बदल गई है. अस्सी के  के दशक तक तो स्वतंत्रता दिवस के इस राष्ट्रीय पर्व को देश का आम-जनमानस जिस खुशी और उल्ल्हास से मनाता था इसके ठीक विपरीत आज आम नागरिक इसे मात्र एक सरकारी पर्व ही समझ कर स्वयं को इससे अलग सा पाता है. न कहीं देश भक्ति के गीत, कवि-सम्मेलन और न ही कहीं वीर स्वतंत्रता सैनानियों के चित्रों और उनकी गाथाओं की प्रदर्शनी. दल-गत राजनीति और जातिवाद के जहर ने देश और समाज को इस प्रकार डस लिया है कि देश की आजादी के लिए अपने प्राणों को कुर्बान करने वाले अमर शहीद स्वतंत्रता सैनानियों और आजादी के महूम दीवानों को भी दलों और जातियों में बांटने की कुचेष्ठा की जा रही है. इतना ही नहीं एक बड़ी साजिश के तहत जहाँ एक ओर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए प्राणों की आहुती देने वाले लाखों वीर स्वतंत्रता सैनानियों की कुर्बानियों को विस्मृत किया जा रहा है वहीँ  दूसरी ओर अपने-अपने जीवित या मृत राजनैतिक नेताओं के नाम पर सड़कों, चौराहों, सरकारी भवनों, पार्कों आदि का नामकरण कर और उनको अमर करने के लिए हजारों-करोड़ रुपया खर्च कर उनकी मूर्तियों की स्थापना करने की होड़ सी लगी हुई है. लोकतंत्र में राजनैतिक दलों को यह सब करने की स्वतंत्रता किसने दी है ? लोकशाही के ऐसे दुरपयोग और दुर्दशा की कल्पना किसी ने नहीं की होगी.
                                  
जीवनयापन और रोजमर्रा की समस्याओं से घिरा आम जन-मानस आज एक चौराहे पर खड़ा है. चौंसठ वर्षों तक देश को लूट कर धनसंपदा और विशालकाय अट्टालिकाएं खड़ी करने वाले इन राजनैतिक दलों और नेताओं से उसे अब कोई आस नहीं है. भ्रष्टाचार लाने और करने वाले यह नेता भ्रष्टाचार क्या मिटायेंगे ? बड़े-बड़े नारे बोलने वालों की करनी और कथनी में बहुत अंतर है. ज्वलंत समस्याओं से निपटने के लिए पक्ष और विपक्ष की नूरा कुश्ती सामान्य जन-मानस अब और देखना नहीं चाहता. गठ-बंधन के धर्म की बहानेबाजी और सत्तालोलुपता के वर्तमान दौर में सभी अपना-अपना हित साधने में लगे हुए हैं. आपातकाल के बाद सभी का वैचारिक पतन प्रारम्भ हो गया था. आज के समय में समाजवादी हों या साम्यवादी, ईमानदारी और सादगी के द्योतक उज्जवल वस्त्र पहने गांधीवादी हों या मंदिर के रास्ते पुनः गद्दीनशीन होने का स्वप्न देखने वाले रामवादी, यानि सभी में मौका परस्ती और वैचारिक दिवालियापन सरलता से दृष्टिगोचर हो रहा है. कब कौन किसके साथ मिल जाये, कहा नहीं जा सकता. प्रयोग के नाम पर सभी मलाई काटने की फिराक में लगे हुए हैं. यूं.पी.ऐ.प्रथम में साम्प्रदायिकता के नाम पर सरकार पर हावी रहने के चक्कर में बाहर से समर्थन देकर वैचारिक संपन्न साम्यवादियों ने अपनी ही नैया में छेद कर लिया. भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अपराध और आसमान छूती महंगाई से त्रस्त देश की जनता को लोक-तंत्र में अधिक विकल्प दिखाई नहीं देते. सुखकर और अमनो-चैन की जिन्दगी की उम्मीद की तलाश में यदि योगगुरु और अन्ना-हजारे में आशा की किरण दिखाई देती है तो राजनैतिक दलों को अवश्य ही चिंतन करने पर मजबूर होना पड़ेगा कि ऐसी विकट परिस्तिथि के लिए कौन जिम्मेवार है ?
                                 
इतना ही नहीं, कहाँ पहले के समय में देश के जन-सामान्य नागरिक को स्वतंत्रता दिवस यानि १५ अगस्त को लालकिले की प्राचीर से की जाने वाली घोषणाओं की प्रतीक्षा रहती थी वहीँ आज समस्त देश वासियों की निगाहें १६ अगस्त पर केद्रित है. प्रधानमंत्री द्वारा देश की उन्नति, विकास और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए की जाने वाली रिवायती घोषणाओं में अब जनसाधारण को कोई दिलचस्पी नहीं है. सारे देश की उत्सुकता तो यह जानने में है कि पूर्व घोषित कार्यक्रमानुसार गांधीवादी श्री अन्ना हजारे का जन-लोकपाल बिल के समर्थन में अनशन होगा कि नहीं, क्या सरकार लोकतान्त्रिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अन्ना को अनुमति व सुरक्षित स्थान उपलब्ध करवायेगी ? या भारत देश आधी रात को रामलीला मैदान में घटित महाभारत जैसी एक और घटना देखने को विवश होगा ? विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में स्वतंत्रता  दिवस की वर्षगांठ के शुभअवसर पर अभिव्यक्ति, प्रदर्शन और विरोध की अहिंसक स्वतन्त्रता पर सरकारी रूकावट अवश्य ही हमारी स्वतन्त्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाती  हैं.
                   अभी हाल में ही प्रदर्शित हुई आरक्षण नामक चलचित्र पर कई राज्य सरकारों और संगठनों द्वारा उठाये गए बेबुनियाद सवालों और पुणे राजमार्ग पर महाराष्ट्र की निरंकुश पुलिस द्वारा किसानों पर किये गए बर्बरता पूर्वक अत्याचार और गैवाजिब कारणों से बरसाई गई गोलियों के आतंक के कारण भी इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस से आम जनता का ध्यान हट गया है. हिंदु देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाने वाले मरहूम चित्रकार की अभिव्यक्ति के नाम पर वकालत करने वाले तथाकथित सेकुलर अब फिल्मकार प्रकाश झा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में क्यूँ नहीं आवाज उठाते ? क्यूँ नहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब और आंध्रप्रदेश की सरकारों और वहाँ के शासक दलों द्वारा फ़िल्म के प्रदर्शन पर लगाई गई गैरवाजिब रोक को अलोकतांत्रिक और असवैधानिक करार देते जबकि यह फ़िल्म भारत सरकार द्वारा मान्य संस्थान "सेंसर बोर्ड" द्वारा प्रदर्शन के लिए पारित की जा चुकी है. वहीँ दूसरी ओर ग्रेटर-नॉएडा के भट्टा-पारसोल गाँव में पुलिस और किसानों के बीच हुए खूनी संघर्ष के बाद उत्तर-प्रदेश के किसानों के लिए पद-यात्रा  करने वाले वोह मसीहा अब महाराष्ट्र के किसानों के लिए क्यूँ नहीं बोलते जहाँ पुलिस की गई फायरिंग में ३-४ बेगुनाह और निहत्थे किसान शहीद हुए हैं. क्यूँ नहीं महाराष्ट्र सरकार के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन या पद-यात्रा और गोलीकांड में मरने वालों के घर जाकर सहानुभूति प्रकट करते ? अन्यथा उन्हें देश के सामने यह साबित करना ही होगा कि भट्टा-पारसोल और महाराष्ट्र के किसानों के लहू में किस प्रकार का अंतर है ?
                   अरबो-खरबों के घोटाले, नोट के बदले वोट, अरबो-खरबों का काला धन विदेशी बैंको में जमा होना और राजनीति से जुड़े नेताओं और उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों का भ्रष्ट आचरण से करोड़ों का धन और संपती बनाने के खुलासों ने सारे विश्व के सामने देश का सर शर्म से झुका दिया है. इतना ही नहीं लाखों महान वीर स्वतंत्रता सैनानियों की कुर्बानी से अर्जित की गई लोकतान्त्रिक- व्यवस्था को वंशवाद और परिवारवाद में बदला जा रहा है. जन-सेवा कहलाने वाली राजनीति आज एक पेशा होकर रह गई है. बाप के बाद बेटा या पत्नी या फिर उसी परिवार से कोई अन्य ही जन-प्रतिनिधि बनने का हक़ रखने लगा है. राजनीति में इस अघोषित आरक्षण को असवंधानिक तरीके से मान्यता देने में वामपंथियों के अतिरिक्त सभी दलों का समान रूप से हाथ है. इतना ही नहीं स्थापित उच्च और आदर्श परम्पराओं को निजी हित के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है. कहाँ तक गिनवाएं, आजादी के परवानो के सपनों को इन निरंकुश शासको ने अपनी करतूतों से कब का धराशाई कर दिया है.
                                हम आने वाले कल के कर्णधारों के समक्ष कौन सा उदाहरण रखेंगे ? इनकी काली और शर्मनाक करतूतों  के चलते आज देश जिस दिशा की ओर अग्रसर है उस हिसाब से तो विधाता ही इस देश के भाग्य का रखवाला होगा !.
चक्रव्यूह की रचना स्वयं के लिए नहीं होती ....
सरकार एक बार पुनः अपने स्वयं के बुने हुए मकडजाल में उलझ कर रह गई है.  अन्ना के समर्थन में दिल्ली में इतना बड़ा जन-सैलाब और देश-विदेश से इतना जन-समर्थन मिलेगा ऐसा उसे तनिक भी अंदेशा न था. योगगुरु और अन्ना में अंतर उसे समझना चाहिए था. योगगुरु के समर्थक  धार्मिक  प्रकृति के हैं और अन्ना के साथ शहर का पढ़ा लिखा तबका अधिक है. एक ओर जहाँ बडबोले योग गुरु अधिकतर फैसले स्वयं लेते हैं वहीँ दूसरी ओर अन्ना और परिपक्व सिविल सोसाइटी का संयुक्त निर्णय होता है. एक ही मार्ग और मंजिल के लिए दो अलग-अलग नेतृत्व में चलने वाले समर्थक आज अन्ना की शक्ति बन सरकार के लिए न केवल सरदर्द बन गए बल्कि सरकार को झुकने  के  लिए  भी मजबूर कर दिया.
सिविल-सोसाइटी द्वारा जन-लोकपाल कानून बनाने के लिए लिखा गया प्रारूप, संयुक्त प्रारूप समिति द्वारा अक्षरशः न स्वीकार किये जाने के पीछे सरकार चाहे जितने प्रक्रियात्मक कारण या बहाने बताये, मुझ जैसे कॉमन-सोसाइटी के एक सदस्य की समझ से वह सब परे ही हैं. कम बोलने वाली कॉमन-सोसाइटी सब समझती है. लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की दुहाई, संविधान द्वारा प्रदत्त विधायिका और उसके कर्तव्यों व अधिकारों के अतिक्रमण के आरोप उसके गले नहीं उतरते. कॉमन-सोसाइटी समझती है कि इस जन-लोकपाल बिल की मांग उसके लिए नहीं वरन विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में बढ़  रहे  भ्रष्ट-आचरण पर अंकुश लगाने के लिए ही की जा रही है. इन लोगों ने भ्रष्ट-आचरण के द्वारा अकूत धन-सम्पदा कमा विदेशी-बैंकों तक में जमा कर रखी हैं. कॉमन-सोसाइटी का तो अपने गावं या करीब के शहर के अतिरिक्त शिमला या दिल्ली के किसी बैंक में खाता ही नहीं होता, विदेशी बैंकों में  खातों  की बात तो उसके  लिए  दिव्यस्वप्न  ही  है .
भ्रष्टाचार में तो केवल तीन किस्म के ही लोग लिप्त हो सकते हैं. राजनैतिक नेता या उनके सज्जे-खब्बे , सरकारी कर्मचारी व अधिकारी और व्यापारी गण. व्यापारियों की हेरा-फेरी सरकारी तंत्र की  मिलीभगत  के बिना हो नहीं सकती  यानि व्यापारी की हेराफेरी के एवज में तंत्र को हफ्ता या जेब-गर्म. वहीँ दूसरी ओर जनप्रतिनिधि और राजनैतिक नेता जिसमे मंत्री तक आते है व बड़े नौकरशाहों व कर्मचारियों का माफिया. यह माफिया मोटा माल खाते हैं जैसे ऐ.राजा, कनिमोझी , कलमाडी, येदुरप्पा और प्रसार-भारती के निलंबित पूर्व-प्रमुख बीएस लाली आदि. इन की तिहाड़-यात्रा भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वयं जाँच की निगरानी करने या लोकायुक्त की रिपोर्ट के बाद ही पद से त्यागपत्र संभव हुआ. यह तो स्पष्ट है कि जनप्रतिनिधि और मंत्री आदि ही इस देश में आकंठ भ्रष्टाचार के पोषक हैं. इन्हीं के संरक्षण में भ्रष्टाचार न केवल फला-फूला बल्कि वह स्वयं भी इसमें लिप्त होते हैं. लोकतंत्र के जिस मंदिर " संसद " की यह आज दुहाई देते फिर रहे है वह तो कब का इनके कृत्यों से अपवित्र हो चुका है. वोट के बदले नोट और " संसद में सवाल के बदले नोट " जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं. लोकतंत्र  के  मंदिरों  में  बैठने  वाले  हमारे यह जनसेवक आज स्वयं  को  हमारा  भाग्य-विधाता  समझने  लगे  हैं .
कॉमन-सोसाइटी को लगता है कि हमारे जन-सेवक भारतीय ईतिहास से कम और धार्मिक शास्त्रों से अधिक सबक लेते हैं. महाभारत में चक्रव्यूह और अभिमन्यु की कथा हम सभी जानते हैं.  चक्रव्यूह की रचना युद्ध में दुश्मन को घेर कर मारने के लिए की जाती थी. विभिन्न प्रकार से रचे गए चक्रव्यूह में दुश्मन की सैना को तितर-बितर करना तो संभव होता था परन्तु जीवित वापिस लौटना असंभव. अर्जुन पुत्र वीर-अभिमन्यु कौरवों द्वारा रचित चक्रव्यूह को भेदना तो जानता था परन्तु जीवित वापिस लौटने के विषय से पूर्णता अनभिज्ञ था.  इसी कारण वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ. 
महाभारत के जिस उदाहरण को इस देश का बच्चा-बच्चा जानता है उसको हमारे यह वर्तमान भाग्य-विधाता नहीं जानते होंगे, ऐसा सोचना भी बहुत बड़ी मूर्खता होगी. कठोर लोकपाल या लोकायुक्त जैसे बड़े-बड़े अधिनियम भी एक प्रकार से आधुनिक तकनीकी युग के नवीनतम चक्रव्यूह हैं. इनकी रचना विधायिका यानि लोकसभा या विधान सभा में बैठे हमारे यह जन-सेवक या निर्वाचित जन-प्रतिनिधि करते हैं. यह लोग ऐसे चक्रव्यूह की रचना क्यूँकर करेंगे जिसमें इनके स्वयं के फंसने का डर हो युवराज की ताजपोशी की तैयारी में जुटे दरबारियों से मजबूत और कारगर चक्रव्यूह की रचना की आशा करना ही निरर्थक है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वयं चाहने के बावजूद मंत्रीमंडल द्वारा प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल अधिनियम के दायरे से बाहर रखने का जो स्पष्टीकरण दिया जा रहा है वह वर्तमान प्रधानमंत्री की मर्यादा पर कम और आने वाले प्रधानमंत्री पर अधिक अनुकूल बैठता है. लोक सभा की स्थाई समिति को भेजा गया सरकारी लोकपाल अधिनियम का प्रारूप सिविल-सोसाइटी द्वारा सुझाये गए जन-लोकपाल अधिनियम के प्रारूप की अपेक्षा न केवल दंतहीन व कमजोर है बल्कि यह तो  शिकायतकर्ता के मन में एक प्रकार से भय उत्पन्न करता है कि "यदि लगाये गए आरोप सिद्ध न हुए तो तीन वर्ष की सजा हो सकती है. " ऐसे प्रावधानों के चलते कौन शिकायतकर्ता  वीर-पुरुष बन भ्रष्टाचार की वेदी पर शहीद  होने के लिए शिकायत करने का साहस करेगा ?
इन सब के विपरीत तमाम विपक्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध संसद में गर्मी तो खा रहा है परन्तु उसने एक बार भी जन-लोकपाल कानून के पक्ष में एकजुटता नहीं दिखाई. हो सकता है कि यह सब उनकी सोची-समझी किसी रणनीति के तहत ही किया जा रहा हो. संसद में और उसके बाहर, जिस प्रकार से यह तर्क दिए जा रहे हैं कि अन्ना या सिविल-सोसाइटी के नाम पर दस-बीस अनिर्वाचित लोगों का एक समूह सरकार या संसद के अधिकारों का अतिक्रमण करने का प्रत्यन करे तो सांसद यह कतई बर्दाश्त करेंगे. अपने कृत्यों के विरूद्ध उठे आक्रोश के जन-सैलाब को संसद और सांसदों के अधिकारों का अतिक्रमण और लोकतंत्र और संविधान का अपमान बताने  वालों से पलट कर इसी तर्क के साथ यह प्रश्न पूछा जा रहा है कि इस बदले हुए परिवेश में 545 लोगों का समूह कैसे 125 करोड़ जनता की भावनाओं और अधिकारों को बंधुआ बना सकते हैं ? 
देश भर में स्वतः घरों, कार्यालयों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों से निकले  कॉमन-सोसाइटी के आपार जन-सैलाब को देख अब सरकार और चुने हुए इन 545 जन-प्रतिनिधियों को समझ में आ गया होगा कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए रचे जाने वाले  चक्रव्यूह की रचना जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ही करनी होगी. कॉमन-सोसाइटी  संविधान के तहत ही अपने जन-सेवकों का चुनाव करती है, हकूमत करने वाले राजाओं का नहीं. देश की कॉमन-सोसाइटी यदि अपने जन-सेवकों का चुनाव कर सकती है तो नियुक्ति निरस्त करने के अपने अधिकार का प्रयोग करने में भी तनिक संकोच नहीं करेगी, प्रतीक्षा कीजिये ऐसा समय भी शीघ्र ही आने वाला है.   

विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक " विप्र वार्ता "
पंडोह ,मण्डी