Thursday, October 20, 2011

वैचारिक स्वतंत्रता के साथ-साथ अभिव्यक्ति में सतर्कता परमावश्यक है ...!


                 प्रसिद्द अधिवक्ता व टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण पर उनके सर्वोच्च  न्यायालय के परिसर के कार्यालय में हुआ दुर्व्यवहार और हाथापाई के समाचार से सारा देश स्तब्ध सा रह गया. अचानक हुए इस हमले कि किसी को भी आशा तक नहीं थी. देश का संविधान, विधि-विधान और भारतीय सभ्यता इस प्रकार के कृत की कतई भी अनुमति नहीं देतें हैं, इसीलिये सभी ने इसकी पुरजोर भर्त्सना की है. कानून को अपने हाथ में लेने की किसी भी नागरिक को इजाजत नहीं है. परन्तु इस प्रकार के कृत हमारे समक्ष अनेक प्रश्न खड़े करता है जिनके उत्तर हमें इस सारे घटनाक्रम और इसकी पृष्ठभूमि से ही तलाशने होंगे. 
                      सारे देश ने समाचार चैनलों पर पहले प्रशांत भूषण से हाथापाई के दृश्य देखे जिसकी हम भी कड़े शब्दों में निंदा करते हैं परन्तु पकडे गए एक नवयुवक के साथ जिस प्रकार से मारपीट की गई जिसके कारण उसके चेहरे पर अनेक घाव और उनसे बहता रक्त भी सभी ने देखा. अब प्रश्न उठता है कि क्या हिंसा के पश्चात् किसी भी प्रकार की प्रतिहिंसा को हमारा सभ्य समाज और इस देश का कानून इजाजत देता है ? यदि नहीं तो उस पकडे गए नवयुवक के साथ मारपीट करनेवालों के विरुद्ध दिल्ली पुलिस ने क्यूँ नहीं कोई कारवाई की ? इस सारे वृतांत पर देश की जागरूक और तथाकथित सेकुलर मीडिया चुप क्यूँ है ? देशद्रोहीयों, आतंकवादियों, नक्सलवादियों, माओवादियों, माफिया और नाना प्रकार के गैरकानूनी कार्यों में लिप्त अपराधियों और समाज के अन्य वर्गों के मानव अधिकारों के लिए आवाज उठानेवाले विभिन्न संगठनों और पैरवीकारों, जिसमें स्वयं प्रशांत भूषण भी शामिल हैं, से इस देश का हर एक जागरूक नागरिक जानना चाहता है कि क्या हिंसा करनेवाले उस नवयुवक के साथ बाद में  होने वाली प्रतिहिंसा से क्या उसके मानव अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ है ?
                      उस नवयुवक द्वारा प्रशांत भूषण से की गई हाथापाई या इस प्रकार के विधि के विरूद्ध किये गए किसी भी कार्य का मैं समर्थन नहीं करता परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि समाचार चैनलों पर दिखाए गए उस नवयुवक की पिटाई के दृश्यों को अपने बचाव में की गई कारवाई भी तो कतई नहीं कहा जा सकता. तो क्या देश का कानून और मानव अधिकार इस प्रकार से उस नवयुवक कि की गई पिटाई कि अनुमति देता है ? जिस प्रकार आस्था और भावना में बहकर कानून कोई निर्णय नहीं करता उसी प्रकार आस्था और भावना के सामने कानून कोई महत्व नहीं रखता और इसका जीता-जागता उदाहरण स्वयं प्रशांत ने पेश किया जब गिरफ्त में आये उस नवयुवक के साथ प्रतिहिंसा की गई. न तो उन नवयुवकों का प्रशांत से और न ही प्रशांत का उस नवयुवक से किसी भी प्रकार का कोई व्यक्तिगत बैर या वैमनस्य था. दोनों ने ही भावावेश हो गलत कार्य किया और कानून को अपने हाथ में लिया. मानवाधिकार के मुकद्दमों की पैरवी करनेवाले प्रशांत भूषण से तो ऐसा आशा नहीं की जा सकती. इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो प्रशांत पर देश द्रोह का मुकदमा चलाये जाने की मांग तक की है.
                    चलिए अब इस घटना की पृष्ठभूमि में चलते हैं और यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि इस सारे प्रकरण का बीजारोपण कहाँ से हुआ ? प्रशांत भूषण जनमत-संग्रह के बहुत बड़े पक्षधर हैं और रामलीला मैदान में जन-लोकपाल के लिए अन्ना के अनशन और नौ दिन चले देशव्यापी जनआन्दोलन के दौरान दिए गए एक साक्षात्कार में भी उन्होंने जन-लोकपाल बिल के लिए जनमत-संग्रह (Referendum) कराये जाने की मांग की थी. देश के संविधान में जनमत संग्रह कराने का कोई प्रावधान नहीं है तो इस पर प्रशांत का कहना था कि ठीक है, पर जनमत संग्रह नहीं करवाया जा सकता..ऐसा भी तो नहीं लिखा है संविधान में. उनका यह तर्क बहुत ही हास्यास्पद है. किसी भी चौराहे के मध्य में No Parking या वाहन खड़ा करना मना है जैसा कोई सन्देश नहीं लिखा रहता है तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना वाहन वहाँ खड़ा कर सकते हैं ? हर मसले को किसी मुक़दमे की पैरवी समझ जिरह करना और कानूनी तर्क देना अदालत से बाहर नहीं चलता. 
वाराणसी में बीते सितंबर में पराड़कर स्मृति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य और वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि सेना के दम पर कश्मीरियों को बहुत दिनों तक दबाव में रखना सही नहीं है. कश्मीर से सैना हटाने और कश्मीरियों को उनका भविष्य तय करने के लिए उन्होंने जनमत संग्रह करने का मशवरा भी दिया था ताकि यदि वह देश के साथ रहना चाहें तो रहें अन्यथा अलग होने को स्वतंत्र हों. उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय सेना वहां पर अत्याचार कर रही है तथा
AFSPA का भी विरोध किया था. देश की अखंडता, जाति, धर्मं या समुदाय जैसे संवेदनशील या अन्य ऐसे ही मुद्दे जो आस्था, विश्वास और भावना के कारण ही आपसी झगडे का कारण बनते हैं. इन विषयों पर तो सार्वजनिक तौर से कुछ भी कहने से बचना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें हमारे संविधान ने दिया है परन्तु वैचारिक स्वतंत्रता के साथ-साथ अभिव्यक्ति में सतर्कता परमावश्यक है.     
         कश्मीर को किसी भी शर्त पर विवादित कहना, समस्या कहना या अलग पहचान देने की बात कहना आज के समय में कूटनीतिक, राजनितिक और सामरिक दृष्टि से भारत की आत्मा को चोट पंहुचाने वाला है. कश्मीर का मसला इतना उलझा हुआ है कि इसपर किसी भी तरह की टीका-टिप्पणी से बाज आना चाहिए. प्रशांत भूषण को यह पता होना चाहिए कि कश्मीर के वर्तमान निवासियों की सोच के आधार पर कश्मीर का भविष्य तय नहीं किया जा सकता क्योंकि वर्तमान समय में कश्मीर रह रहे लोग ही कश्मीर की पहचान नहीं है. वर्तमान आबादी में तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व कश्मीर घाटी से प्राण बचा कर देश के तमाम भागों में विस्थापित रूप से रह रहे कश्मीरी पंडितों की गिनती नहीं है. देश के किसी भी भाग से धर्म विशेष को मानने वालों की इस प्रकार की उठने वाली आवाज पर जनमत संग्रह करवाने की अनुमति दी जाने लगे तो देश की अखंडता का क्या होगा ? संघीय संरचना वाले लोकतान्त्रिक देश में जहाँ विभिन्न धर्मावलम्बी और विभिन्न भाषा वाले लोग रहते हैं वहाँ इस प्रकार की मांग बहुत ही खतरनाक है. विशेष धर्मावलम्बियों के अनुयाईयों की बहुलता वाले सीमान्त व तटीय प्रदेशों के लिए तो यह और गलत सन्देश होगा. क्या किसी राष्ट्र की भागौलिक और राष्ट्रीयता की पहचान उसके कुछ निवासियों की मर्जी से तय की जायेगी ? यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो शायद ऐसा लोकतंत्र राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगा. 
बनारस में बयान देने से पूर्व क्या प्रशांत ने इस सब विषयों पर गहराई से सोचा था ? कश्मीर की रक्षा के लिए देश के लाखों वीर सिपाही अपने प्राणों को न्योछावर कर चुके हैं. हजारों कश्मीरी पंडित वहाँ मारे भी गए और लाखों अपने प्राण बचा कर अपने ही देश में विस्थापित बन कर तम्बुओं में नारकीय जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं. प्रशांत के इस विवादित वक्तव्य को जहाँ एक ओर अन्ना हजारे ने  प्रशांत का व्यक्तिगत वक्तव्य माना है वहीँ दूसरी ओर भारत सरकार ने भी प्रशांत के इस विवादित वक्तव्य को गलत करार दिया है. देश हित और कश्मीरी पंडितों के कश्मीर में सम्मान व अधिकारपूर्वक पुनर्वास की राह तलाशने वाली शक्तिओं को प्रशांत के इस बयान से निसंदेह आघात पहुंचा है और राष्ट्रविरोधी शक्तियों को ताकत. देश की अखंडता को बचाए रखने के लिए विवादित विषयों पर अभिव्यक्ति की सतर्कता नितांत आवश्यक है.

प्रधानमंत्री पद और हाई कमान

राजनैतिक व्यंग

(यह लेख भी प्रकाशित ही चुका है )
मीडिया वालों को तो सनसनी फैलाने के अतिरिक्त और कुछ काम ही नहीं है. कभी खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के समाचार तो कभी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में उछाल की सुर्खियाँ. अब सब के मन को मोहने वालों को और भी तो सैकड़ों काम हैं कि नहींया वे केवल मीडिया वालों को निहारते हुए उनके द्वारा निर्देशित हो नीतियों का निर्धारण करें. इस देश में समस्याएं कोई नई हैं. देश मीडिया या जनता के चिल्लाने से नहीं चलता और न ही विपक्षी दलों द्वारा आरोप लगा हंगामें खड़े कर संसद के काम-काज में व्यवधान पैदा करने से. वह दिन गए जब धरने-प्रदर्शनों और अनशनों से दिल्ली सरकार के सिहासन तक हिल जाया करते थे. अब समय बदल गया है. नैतिक और शिष्ट आचरण भूली-बिसरी बातें हो गई हैं और उनका स्थान ले लिया है अनैतिकता और भ्रष्टाचार ने. इतना ही नहीं चर्चा तो यह भी है कि अपनी सरकारों को जीवनदान और टिकाऊ बनाने के लिए झारखण्ड से शीबू-संजीवनी बूटी का आयात और अमरत्व के लिए अमर-जल जैसी औषधियों को समाजवादियों से छीन कर प्रयोग करने में भी अब कोई परेशानी नहीं होती. यह बात अलग है कि शीबू-संजीवनी स्वयं समाप्त हो गयी और अब उसकी कुछ कोंपलों से दूसरे दलों के लिए संजीवनी बूटी का काम किया जा रहा है. वहीं दूसरों को अमरत्व देने वाला अमर-जल, स्वयं रोगयुक्त हो कठिन दौर से गुजर रहा है.
यह तो दिखाई देने वाले क्षणिक उपचार है, इन से सरकारें नहीं चलतीं. देश की सरकारें चलती हैं एक अदृश्य शक्ति के आदेशों से जिसे आम भाषा मैं हाईकमान का फरमान कहा जाता है. समय-समय पर इस हाई-कमान की स्थिति भी देश, काल और परिस्थिति वश अलग-अलग दलों में भिन्न होती है. पूर्व के अति शक्तिशाली इस हाईकमान की शक्तियों में इस कदर गिरावट आई कि यह बेचारा शक्तिहीन व भय-क्रांत हो कंगारू के बच्चे की भांति सदा ही अपनी माता ( सत्ता) के पेट में ही रहना उसी पर निर्भर करना पसंद करने लगा. यदि कभी किसी कारण से उस समय के हाईकमान ने स्वतन्त्र हो स्वयं निर्णय कर सत्ता को निर्देशित करने का प्रयत्न किया तो सत्ता ने हाईकमान को दुत्कारते हुए न केवल उसका त्याग किया बल्कि स्वयं के लिए बच्चे के रूप में एक नए खिलौने ( हाईकमान ) का निर्माण कर लिया. सत्तर के दशक से पूर्व जो हाईकमान देश के प्रधान मंत्री तक को भी निर्देश देने में सक्षम होता था, सत्तर के बाद बहुत ही दयनीय स्थिति में नतमस्तक और विनम्र हो प्रधानमंत्री की जेब का खिलौना बन उसके आदेशों का पालन करने लग पड़ा. गंगा उल्टी बहने लगी. प्रधानमंत्री का स्थान ऊपर हो गया और हाई-कमान का नीचे. बीच-बीच में कुछ समय के लिए परिवर्तन भी आता रहा.
 परन्तु 2005 के पश्चात् तो परिस्थितियां एकदम विपरीत हो गईं. सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया. अब हाईकमान पुनः न केवल शक्तिशाली हो गया बल्कि किसी हद तक परदे के पीछे सत्ता के अधिकारों से भी संपन्न हो गया जिसके चलते प्रधानमंत्री का पद माधो हो गया. अब प्रधानमंत्री का पद इतना कमजोर कर दिया गया कि उस पर बैठा व्यक्ति रिमोर्ट चालित खिलौने की भांति हाई-कमान के आदेशों का पालन करने लग पड़ा. करता भी क्यूँ नहीं, प्रधानमंत्री के सभी विशेषाधिकार हाई कमान के पास सुरक्षित जो होने लग पड़े. आन्तरिक मामलों में किसी भी प्रकार की असामान्य या संकट की घड़ी में ऐसा प्रधानमंत्री सदा ही अपंग या बेबस सा परिलक्षित होता हुआ विदेश से शीघ्र उपचारोप्रांत हाई कमान के स्वास्थ्य लाभ कर लौटने की कामना ईश्वर से करता है. सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान निरीह और दुखियों की सुनने वाला वह ईश्वर देश हित में अंततः उसकी सच्ची प्रार्थना सुन ही लेता है. हाईकमान के विदेश से लौटते ही महीनों से उठ रहे २ जी घोटाले के बवंडर में चिदंबरम की मत्रीमंडल से निकासी रूक जाती है और सब कुछ सहज हो जाता है. इस घटनाक्रम में देश का मीडिया भी अनमने मन से अगला प्रधानमंत्री अडवानी होंगे या मोदी ? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में निकल पड़ता है.
वर्तमान परिदृश्य में हाईकमान की शक्तियां और अधिकार बहुत विस्तृत होते है. वह पार्टी या सरकार में बहुत कुछ कर सकने में सक्षम होता है. वह अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए कर्मठ और जीतने वाले पुराने उम्मीदवार को टिकट देने से बिना कोई कारण बताये मना कर सकता है. लोकतांत्रित व्यवस्था में बहुमत की अनदेखी कर अपनी इच्छा और आदेशों से वह किसी को भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक बनाने की शक्ति रखता है और पद च्युत करने की भी. वह चाहे तो वर्तमान में भी जीतने कि क्षमता रखने वाले विधान सभा के सदस्य को टिकट न देकर अपने किसी खानसामे या निजी सुरक्षाकर्मी को टिकट देकर, पार्टी की नाक कटवाने के साथ-साथ जमानत जब्त करवाने का अधिकार भी रखती है. हाईकमान कोई स्त्री या पुरुष न होकर एक शक्ति का नाम है. एक ऐसी शक्ति जो धारक के स्वयं की अनुपस्थिति में केवल और केवल अपने पुत्र को ही हस्तांतरित की जा सकती है.
अंत में, हाईकमान द्वारा किये गए किसी भी कार्य या आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती . इतना ही नहीं यदि हाईकमान के किसी भी आदेश या कार्य का परिणाम गलत निकलता है तो ऐसी विकट परिस्थिति में भी सभी एक साथ मिल कर उसे नीतिसंगत और तर्क संगत ठहराने की कोशिश करेंगे.

क्या मात्र भोजन पर खर्च ही तय करेगी गरीबी रेखा

( यह लेख भी प्रकाशित हो चूका है )
संविधान में दर्शाए गए बराबरी के अधिकार और लाल किले की प्राचीर से की जा रही विगत ६४ वर्षों से घोषणाएं सब की सब धरी की धरी रह गईं . महंगाई और बेरोजगारी की लगातार मार झेल रहा वह हर एक आम आदमी जो विगत ६४ बरसों से गरीबी और भुखमरी की जिन्दगी केवल इस आशा में जी रहा था कि विकास और तरक्की की बयार एक दिन उस तक भी पहुंचेगी. अपनी गरीबी और दयनीय स्थिति से वह सरकार और राजनैतिक नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणाओं के सहारे ही वह एक लम्बे समय से संघर्ष करता चला आ रहा था. और अंततः जिस आस के सहारे देश का सबसे निम्न स्तर का व्यक्ति अभी तक सांसें ले रहा था वह आस भी सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे के साथ ही छूट गई. कारण कि अब सरकारी माप-दण्डों के हिसाब से उसका जीवन स्तर उठ चुका है, उसकी गरीबी दूर हो चुकि है और उसके परिवार का कुपोषण भी दूर हो गया है. रहने के लिए मकान , स्वास्थ्य ,शिक्षा और पहनने के लिए कपडे की तो उसे या उसके परिवार  को आवश्यकता ही नहीं रही है. अब वोह जीवन की सभी चिंताओं से दूर हो गया है. चौकिये मत, हमारे अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाले देश की सटीक , पुख्ता और सर्वांगीण विकास की योजनायें बनने वाले केंद्र सरकार के योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे में गरीबी की रेखा की एक नई परिभाषा गढ़ते हुए कहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रुपये और शहरी क्षेत्र में ३२ रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति  भोजन  पर खर्च करने वाले गरीब नहीं कहे जा सकते इसलिए वह सरकार द्वारा निर्धारित गरीबी की रेखा से ऊपर माने जायेंगे यानि अब वह अमीर हो गए.
इस प्रकार का हलफनामा देने से पूर्व योजना आयोग ने क्या संसद की कैंटीन का दौरा किया था हमारे इन जन-प्रतिनिधियों को वहाँ रेलवे बोर्ड द्वारा संचालित कैंटीनों में जिस दर पर भोजन व अन्य  खाद्य पदार्थ मिलते है, उस हिसाब से हो सकता है कि हमारे यह जन-प्रतिनिधि ही गरीबी की रेखा से नीचे आ जायें. 
योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है.  रिपोर्ट में अंत में यह भी कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. विधित हो कि  उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. अब सरकार के हलफनामे के अनुसार शहरी क्षेत्रों में ३२ और ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रुपया प्रतिदिन भिजन पर खर्च करनेवाला व्यक्ति गरीब नहीं कहा जा सकता. जबकि इन सब के ठीक विपरीत वर्ल्ड बैंक, जिसे आम आदमी का हितैषी नहीं समझा जाता है क्यूंकि वह अपने निवेशकों का हित अधिक सुरक्षित रखता है, ने भी गरीबी की रेखा के लिए २ डालर प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति निर्धारित किये हैं जो कि लगभग ९५ से ९८ रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति बैठता है. यह राशि उसने सारी दुनिया के लिए निर्धारित की है.  

इस हास्यास्पद परिभाषा पर आम जनता, विपक्षी दलों और स्वयं योजना आयोग के कई सदस्यों को भी ऐतराज है. वास्तविकता से कहीं दूर इस विवादित  रिपोर्ट के अनुसार, एक दिन में एक आदमी यही 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. इसी के साथ यदि एक व्‍यक्ति 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. केंद्र सरकार और देश की तमाम योजनाओं को मूर्त रूप देने वाले इस के आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं.  शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो इसका अर्थ है कि आप या आपका परिवार शिक्षा ग्रहण की ओर अग्रसर है और आप केद्र सरकार के इस योजना आयोग की निगाह में गरीब तो कतई भी नहीं कहे जा सकते. सरकार के इस निर्णय की सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता  कॉलिन गोंजाल्विस ने भी आलोचना की है. उनका कहना है कि इससे गरीब बीपीएल कार्ड व अन्य आवश्यक सरकारी सुविधाओं से वंचित हो जायेंगे.  उन्हें सरकारी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी नहीं मिलेगी क्योंकि सरकार की नजर में वे गरीब नहीं रह जायेंगे.
देश की जनता जहाँ एक ओर भुखमरी और बेरोजगारी से त्रस्त है वहीँ दूसरी ओर केन्द्र की यूपीए सरकार के अजीबो-गरीब फैसले जनता को महंगाई की मार झेलने मजबूर कर रहे हैं. विगत दो वर्षों में सरकार के फैसलों से रोजमर्रा की जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं के दाम अपनी चरम सीमा हैं. एक ओर पेट्रोलियम कंपनियों का पूर्व का घाटा पूरा करने के लिए सरकार सब्सिडी बंद कर रही है वहीँ दूसरी ओर विगत 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से ) दे दिया गया. वहीँ सरकार के नवीनतम आकड़े दर्शाते हैं की देश के लगभग 44 प्रतिशत किसान अब खेती का काम करना नहीं चाहता जिस के कारण देश के खेतिहर खेती से किनारा कर मजदूरी कर रहे है. देश का लगभग 50 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ से दबा हुआ है और कर्ज न चुका पने के कारण हर 30 वे मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. इन्हीं सब कारणों के परिणामस्वरूप देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता में गिरावट निरंतर जारी है.
यदि अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट पर विश्वास किया जाये तो देश के 83.7 करोड़ लोग रोजाना 20 रुपये से भी कम कमाते हैं. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 66 वाँ स्थान है जिसके चलते भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 20 करोड़ है. जबकि वास्तविक स्थिति इससे भी बदतर बताई जाती है. एक ओर जहाँ देश की तक़रीबन 77 प्रतिशत आबादी भुखमरी की शिकार है, वहीँ अब हजारो टन अनाज सरकारी गोदामों में रखरखाव की लापरवाही से या भ्रष्टाचार के चलते कागजों में ही सडा दिए जाते है. भ्रष्टाचार के मामलों में विश्व के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87 वे स्थान पर है. इतना ही नहीं देश की 50  प्रतिशत आबादी रिश्वत के जरिये काम करने या करवाने को विवश है. स्विट्जरलैंड के आंकड़ों के अनुसार भारत का 66,000 अरब रुपए(1500 बिलियन डॉलर) काला धन के रूप में स्विस बैंक में जमा है. वाशिंगटन में हुए एक अध्ययन के अनुसार भारत ने स्वतंत्रता के बाद से 2008 तक 20,556 अरब रुपए (462 बिलियन डॉलर) भ्रष्टाचार, अपराध और टैक्स चोरी के कारण गंवाया है.
कहाँ तक और किस-किस बात का रोना रोया जाये. सरकार के पास संवेदनशीलता नाम की कोई चीज दिखाई नहीं देती. मगरूर सरकार को अपने हर गलत फैसलों पर अड़ना और हमारे इन जन-प्रतिनिधियों को अपने विशेषाधिकारों के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता. देश के जन-मानस के समान-नागरिकता, समान-मानवता और समान-जीने के अधिकार के विषय में यदि समय रहते चिंतन कर सार्थक उपाय नहीं किये गए तो विवश हो समय आने पर यह जनता अपने मताधिकार का प्रयोग कर ऐसा झाड़ू फेरेगी कि......बस धो कर ही रख देगी !

विचित्र संयोग

( यह लेख भी प्रकाशित हो चुका है )
 भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए जन-लोकपाल विधेयक के लिए अन्ना हजारे का अनशन और उनके समर्थन में चला देश भर में करोड़ों लोगों के आन्दोलन के आगे मगरूर सरकार ने भी सर झुका कर ही अपनी साख बचाई परन्तु स्थाई समिति का पेंच फिर भी पासा दिया. हालाँकि कानून, न्याय, कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय की बहु चर्चित संसदीय समिति, जिसके पास लोकपाल विधेयक विचार के लिए भेजा गया है, के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी का यह कथन कि--आंदोलनकारी यकीन क्यों नहीं करते और स्थायी समिति को एक मौका क्यों नहीं देते ? क्या पता यह समिति कोई चमत्कार करने में सफल रहे, और लोकपाल बिल को लेकर कोई चौंकाने वाला नतीजा लाने में कामयाब हो जाए, बहुत ही मायने रखता है. स्थाई समिति के अध्यक्ष यह आश्वासन कि-- "स्थायी समिति संसदीय लोकतंत्र के लिए गर्व की बात है. कई बार कुछ मुद्दों को लेकर हमारे बीच मतभेद होते हैं. स्थायी समिति छोटी संसद की तरह है, जो दलगत राजनीति से ऊपर मुद्दों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखती है. इसमें विभिन्न विचारों पर चर्चा की जाती है और फिर यह लोगों के हित में सिफारिशें देती है. संसद में मुद्दे ज्यादा होते हैं और समय कम, हर पहलू पर व्यापक चर्चा नहीं हो सकती. वह काम संसदीय समिति करती है. इसमें छोटी सी छोटी बातों पर चर्चा होती है और उस हिसाब से मसविदा तैयार किया जाता है. हर किसी को इसे बनाए रखना, इसकी प्रशंसा करनी चाहिए और इस व्यवस्था को कम करके नहीं आंकना चाहिए. स्थायी समिति विचारों के आदान-प्रदान और संतुलित तरीके से विचार-विमर्श के लिए सर्वश्रेष्ठ मंच है. लिहाजा, इसकी आलोचना करने के बदले इसकी गरिमा का ख्याल रखना चाहिए." इस भावपूर्ण  बयान से जन-साधारण के मन में कुछ विश्वास सा तो जगता है कि संसद की यह  ३१ सदस्यों वाली  स्थाई समिति अपने देश और जनता से इतनी बेवफाई तो नहीं कर सकती कि देश भर में चले इतने बड़े जनांदोलन की अनदेखी करते हुए भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए एक नकारा बिल को सदन के पटल पर रख दें. देश वासियों को विश्वास है कि स्थाई समिति के अध्यक्ष अपना वायदा निभाते हुए जन-लोकपाल बिल के प्रारूप से भी अधिक कारगर कानून लायेंगे.
 अंत में यह भी अजब और विचित्र संयोग है कि अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली कानून, न्याय, कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय की स्थाई समिति जिसने लोक पाल या जन-लोकपाल के विभिन्न प्रारूपों और तमामत सुझावों पर गहन चर्चा कर के एक कठोर और कारगर लोक पाल बिल का प्रारूप कानून बनाने के लिए संसद के पटल पर रखना है, के पिता ने ही  कई दशक पहले लोकपाल शब्द की रचना की थी. कानून, न्याय और कार्मिक मामलों की संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी के पिता, एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी, जाने माने विधिवेत्ता और भारतीय ज्ञानपीठ प्रवर समिति के अध्यक्ष डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा 1960 के दशक  में संसद की चर्चा में भाग लेते हुए बार-बार  औमबुड्समैन नियुक्त  करने की मांग उठाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने  सिंघवी से कहा था-- यह किस चिड़ियाघर का प्राणी है ? डा० सिंघवी, हम सब को समझाने के लिए आपको इसका स्वदेशीकरण करना होगा. डा० सिंघवी ने इस पद का हिन्दी रूपांतरण करते हुए इसे लोकपाल  नाम दिया और इसके सहयोगी का  लोकायुक्त नाम रखा था. डा० एम्.एल.सिंघवी ने 1963 से 1967 तक लोकपाल विधेयक के लिए अभियान चलाया लेकिन चूंकि वह निर्दलीय सांसद थे, इसलिए उनके प्रयास कोई रंग न ला सके. पुत्र होने के नाते कांग्रेसी सांसद अभिषेक मनु सिंघवी के लिए आज यह बहुत ही हर्ष का विषय है कि 1963-1967 तक जिस विधेयक के लिए उनके स्वर्गीय पिता प्रयासरत रहे, आज भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बनाये गए लोकपाल  विधेयक का बहुचर्चित प्रारूप उन्हीं की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति के पास विचारणीय है. डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी लोकसभा ( 1962 - 67 ) और राज्यसभा ( 1998 - 04 ) के सदस्य रहे. साहित्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में भी विशेष उपलब्धियां हासिल करने वाले डा० एलएम् सिंघवी ने  ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त के रूप में भी काम किया. अनेकों बार सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता-संघ के अध्यक्ष रहे डा० सिंघवी को विधि और सार्वजनिक विषयों में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में  पद्म भूषण  से भी सम्मानित किया गया.
इन सब परिस्थितियों को देखते हुए देश को अविश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखता कि अभिषेक मनु  सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति कुछ चमत्कार करते हुए चौंकाने वाले नतीजे लाने में अवश्य ही कामयाब होंगे !
                              
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विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक  विप्र वार्ता
पंडोह , मंडी