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जन लोकपाल विधेयक को लेकर अन्ना के अनशन और देश भर में चले आंदोलनों के दौरान जब अचानक ही सरकार ने अपना लोकपाल बिल संसद में पेश कर दिया और सदन ने उसे स्थाई समिति के पास भेज कर अन्ना और उनकी टीम को स्थाई समिति से बात करने को कहा तब सारा देश स्तब्ध सा रह गया था. अचानक महत्वपूर्ण भूमिका में आयी इस स्थाई समिति को देश ने अन्ना और सरकार के मध्य स्थापित होने जा रहे संवाद के चलते एक बड़ी रूकावट की नजर से देखा जा रहा है. मिनी-संसद के नाम से प्रख्यात स्थाई समिति की आवश्यकता इससे पूर्व कभी किसी विधेयक को पारित करते समय महसूस नहीं की गई. संसदीय परम्पराओं और प्रक्रियाओं में स्थाई समिति का क्या स्थान है ? किस से प्रकार इन स्थाई समितियों का गठन होता है और क्या सभी विधेयक इन स्थाई समितियों के अनुमोदन के पश्चात् ही सदन के पटल पर पारित होने के रखे जा सकते हैं ? क्या इन स्थाई समितियों के सुझाव सरकार मानने के लिए बाध्य है ? इस प्रकार के अनेकों प्रश्न देश की जागरूक जनता-जनार्धन के मन में उठना स्वाभाविक है. देश यह भी जानने का अधिकार रखता है कि किन परिस्थितियों में बिना स्थाई समिति की राय जाने, विधेयक सदन द्वारा पारित किये जा सकते हैं ? संसदीय कार्य के बढते भार को कम करने व समय की बचत करने की दृष्टि से ही लघु संसद के नाम से स्थाई समिति का गठन कर संसद में पारित होने वाले विधेयकों की जाँच व आम जनता से सुझाव मांग उन पर विचार करने का कार्य इन्हें सौपा गया. चूँकि इन स्थाई समितियों में सभी दलों के सदस्य तथा कुछ निर्दलीय सदस्य भी होते हैं इसी लिए इसे लघु संसद भी कहा जाता है. आइये इन स्थाई समितियों के विषय में कुछ जानने का प्रयत्न करते हैं.
संसदीय परम्पराओं और प्रक्रियाओं में स्थाई समिति का क्या स्थान है
भारत की संसदीय परम्पराओं में स्थायी समिति बनाने की शुरुवात तो 1989 में हुई थी जब सर्वप्रथम तीन स्थायी समितियां बनी थी. यह थी एग्रीकल्चर, साइंस एण्ड टेक्नालॉजी और पर्यावरण मंत्रालयों की स्थाई समितियां. लेकिन इसकी वास्तविक शुरुआत 1993 में हुई जब विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की 17 विभागीय स्थायी समितियां अस्तित्व में आईं थी. वर्तमान में इनकी संख्या 24 है. विभागीय स्थायी समितियां संबंधित मंत्रालयों के तहत ही आती हैं. हमें यह समझना होगा कि इन स्थाई समितियों का कार्य केवल विधेयक पर सुझाव मांग उस पर चर्चा कर अपनी रिपोर्ट सदन के पटल पर रखना ही नहीं है. इनका पहला काम संबंधित मंत्रालय की बजट अनुदान मांगों पर विचार करना है. इसके बाद इनके कार्यक्षेत्र में लोकसभा या राज्यसभा के सभापति द्वारा भेजे गये विधेयकों पर विचार करना होता है. इनकी तीसरी जिम्मेदारी मंत्रालयों की वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करना और अंतिम जिम्मेदारी लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा सभापति द्वारा सदन में पेश हुए नीति निर्धारक दस्तावेजों पर विचार कर रिपोर्ट देना होता है. स्थायी समिति को आम जनता और संसद के बीच की कड़ी भी माना जाता है. सम्बंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा इनके पास भेजे गए किसी भी विधेयक पर यह आम जनता के साथ-साथ विषय के जानकारों, विशेषज्ञों और हितधारकों आदि की भी राय मांग सकती है और जाँच के पश्चात् सभी को सदन के पटल पर रखा जाता है.
गठन की प्रक्रिया
संसद के कार्यो में विविधता के साथ ही कार्यों की अधिकता भी रहती है. सिमित समय होने के कारण संसद के समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो पाता. अत: भार कम करने व समयबद्धता की दृष्टि से ही बहुत-सा कार्य सदन द्वारा गठित समितियों को ही सौंपा जाता है. संविधान के अनुच्छेद 118 के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना अधिनियमित कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी ही होती है. संसद की समितियां सामान्यता दो प्रकार की होती हैं- स्थायी समितियां: निरंतर चलने वाली स्थायी समितियां प्रतिवर्ष या समय-समय पर निर्वाचित या नियुक्त की जाती हैं. तदर्थ समितियां: इन समितियों की नियुक्ति कार्य की आवश्यकतानुसार ही की जाती है और कार्य के पूर्ण हो जाने व रिपोर्ट पेश कर देने के बाद इनका कार्यकाल स्वतः ही समाप्त हो जाता है.
समिति में सदस्यों की संख्या : 31 सदस्यीय प्रत्येक समिति में संसद के दोनों सदनों में दलों की अपनी संख्या के हिसाब से सदस्य चुने जाते हैं जिसमें 21 सदस्य लोकसभा व 10 सदस्य राज्यसभा से लिए जाते हैं. स्थाई समितियों का कार्यकाल साधारणतया एक वर्ष का ही होता है. अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली कानून, न्याय, कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय की बहु चर्चित संसदीय समिति जिसके पास लोकपाल विधेयक विचार के लिए भेजा गया है, का कार्यकाल भी 31 अक्टूबर को समाप्त हो गया है. 31 सदस्यीय इस स्थाई समिति में अभी 25 सदस्य ही थे और 6 स्थान रिक्त चल रहे थे. मनीष तिवारी की इस से हटने की इच्छा जाहिर करने और अमर सिंह जो अभी तक समाजवादी कोटे से इसके सदस्य थे, के निर्दलीय सदस्य घोषित होने के कारण अब इसका पुनर्गठन होना निश्चित ही है. अभी तक इस संसदीय समिति में कांग्रेस के 8, भाजपा के 6, 8 विभिन्न दलों के एक-एक और 3 निर्दलीय मिलकर 25 सदस्य और 6 स्थान रिक्त चल रहे हैं.
विधेयको को समिति के पास भेजने की बाध्यता
विधेयको को समिति के पास भेजने की बाध्यता
किसी भी विधेयक को चर्चा व सुझाव के लिए स्थाई समिति के पास भेजना संविधानिक बाध्यता नहीं है. सरकार स्थाई समिति के पास भेजे बिना भी किसी भी विधेयक को सदन में पारित करवा सकती है. सांसदों के वेतन-भत्ते बढोतरी संबंधी बिल और ऑफिस ऑफ प्रॉफिट जैसे कई महत्वपूर्ण बिल बिना स्थाई समिति की राय के ही कानून बन गए. सांसद-निधी बढ़ाने का बिल भी आनन-फानन में सांसद में पेश किया गया और पारित कर दिया गया. क्या इन बिलों पर जनता, बुद्धिजीवियों व विशेषज्ञों की राय लेने के लिए इस समिति के पास भेजा जाना आवश्यक नहीं था ?
सुझाव मानने की बाध्यता नहीं
संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार बिलों को संसद की स्थायी समिति के पास भेजे जाने का प्रावधान तो है लेकिन किसी भी बिल को पारित कराने से पहले यह कोई संविधानिक बाध्यता नहीं है. इसके अलावा इन स्थाई समितियों की सिफारिशें भी बाध्यकारी नहीं होती. बिल पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की भूमिका ही अहम होती है. ऐसे में किसी बिल को इस समिति में भेजे जाने की अनिवार्यता वाली सरकार की दलील तर्कहीन ही है. इन स्थाई समितियों द्वारा रिपोर्ट देने की समयसीमा तय करने को लेकर भी अनेकों बार सवाल खड़े किये जा चुके हैं. वर्तमान में इन समितियों द्वारा किसी बिल की रिपोर्ट पेश किए जाने की कोई निश्चित सीमा अवधि नहीं है.
महत्वपूर्ण हैं संसद की स्थायी समितियां
आजाद भारत की इकसठ वर्षीय संसदीय व्यवस्था ने आज तक लगभग 725 छोटे बड़े केंद्रीय कानून बनाये हैं जिनमें अधिकतर को कानूनीजामा पहनने के लिए इन मिनी पार्लियामेंट यानी संसद की स्थायी समिति का मुंह देखना ही नहीं पड़ा जिनमें एसईजेड, एनआइए और गैरकानूनी गतिविधि जैसे महत्वपूर्ण कानून भी शामिल हैं. इनमें कुछ अपवाद भी हैं जैसे सूचना के अधिकार का कानून जिसे संसद की स्थायी समिति में ही संशोधित कर अधिक कारगर बनाया था. स्थाई समिति अपने सुझावों की रिपोर्ट तैयार करते समय सभी सदस्यों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश करती है. यदि कोई सदस्य इसके पक्ष में नहीं हैं तो वह अपने विरोध नोट को दर्ज भी कर सकते हैं. सिविल लिबर्टी फॉर न्यूक्लियर डैमेजज बिल में वाम दलों के सदस्यों ने अपनी असहमति और विरोध के नोट लिखे थे.
अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली स्थाई समिति का पुनर्गठन भी होने जा रहा है. देश को आशा है कि इसमें निष्पक्ष और भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने की भावना रखने वाले संसद सदस्यों को ही लिया जायेगा जो अपने सुझावों से एक कठोर कारगर और पारदर्षीय लोकपाल कानून बनाए का मार्ग प्रशस्त करेंगे .
विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक विप्र वार्ता
पंडोह, मंडी


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