( यह लेख अमर ज्वाला साप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुका है )
विदेशी बैंकों में जमा इस देश के काले धन के विषय पर केन्द्रिय सरकार की अकर्मण्यता पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अन्वेषण टीम के गठन के आदेश ने एक बार पुनः यह साबित कर दिया है कि यदि कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही ढंग से करने में असमर्थ हो तो न्यायपालिका को उचित कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ता है . भारतीय लोकतंत्र में सविंधान द्वारा सभी के कर्तव्य निर्धारित किये गए हैं . विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका को सविंधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और कर्तव्यों अनुसार अपनी सीमाओं के अन्दर रहकर ही कार्य करना चाहिए . किसी को भी अतिक्रमण की अनुमति नहीं है .
७० से मध्य ८० के दशक तक आते आते सामाजिक और राजनैतिक मूल्यों का बहुत तेजी से ह्रास हुआ . बढती राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं और निहित व दलगत स्वार्थों की पूर्ती के लिए विधायिका और कार्यपालिका द्वारा उठाये गए बहुत से क़दमों को न्यायालयों में चुनौती दी गई और न्यायपालिका ने न्याय करते हुए अपने निर्णयों द्वारा उनको गैर-कानूनी या असविधानिक ठहराते हुए उन पर रोक लगा दी थी . न्यायपालिका के न्यायोचित निर्णयों से नाखुश उस समय की केन्द्रिय सरकारों ने अपनी प्रभुसत्ता कायम करने की दृष्टि से न्यायालयों को दबाने की कुचेष्टा भी की परन्तु सफलता नहीं मिली . देश , समाज और सविंधान के हित में अपने अधिकार और कर्तव्य क्षेत्र को समझने वाली हमारे देश की स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका को उसके पथ से कोई डिगा नहीं सका .
सत्ता पक्ष के साथ साथ कुछ मिडिया वालों ने न्यायपालिका पर अतिरिक्त न्यायिक सक्रियता का आरोप लगाते हुए उसकी आलोचना भी की परन्तु यह आलोचना निरर्थक ही साबित हुई और हमारी न्यायपालिका अपने स्थापित आदर्शों के अनुरूप सविंधान द्वारा प्रदत्त अपने अधिकारों और कर्तव्यों का निर्वहन कर इस देश के जन सामान्य के ह्रदय में अपना सम्मान बढ़ाते हुए अपना कार्य करती रही . यही एक कारण है जिसके चलते आज हर तरफ से निराश हो चला इस देश का एक साधारण नागरिक भी अपनी प्रत्येक समस्या और अधिकारों की प्राप्ति के लिए न्यायपलिका से ही न्याय की आशा रखता है .
केशवानंद भारती केस में न्यायपालिका की व्यवस्था के बाद सालों साल इस पर बहस भी चली थी . संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकार-क्षेत्र को लेकर कई बार टकराव की स्थितियां भी बनीं . ऐसे हालात तभी बनते हैं जब एक ओर सरकार का अपनी ही संस्थाओं पर नियंत्रण खत्म होता जाता है और दूसरी ओर वह जनता का विश्वास खो देती है . दूरसंचार घोटाले पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ( कैग ) की रिपोर्ट को लेकर कपिल सिब्बल जैसे जिम्मेदार केंद्रीय मंत्री द्वारा किया गया दावा और उस पर न्यायपालिका सहित देशभर में हुई प्रतिक्रिया इसका केवल एक उदाहरण है . विभिन्न मुद्दों पर सरकार द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया ठीक उसी प्रकार से है जैसे भयाक्रांत सेनाएं मैदान छोड़ने से पहले अपने सभी महत्वपूर्ण ठिकानों को ध्वस्त करने लगती हैं .
कार्यपालिका के निश्कर्मन्यता को न्यायपालिका भी अनदेखा कर देगी.....ऐसा सोचना गलत है . और न्यायपालिका ने ऐसा दरशा भी दिया है . अभी हाल के दिनों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ फैसले बहुत ही महत्वपूर्ण और एतिहासिक हैं . भारतीय लोकतंत्र में इनके दूरगामी परिणाम साबित होंगे .
* मार्च में एक सुबह न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी ने जब काले धन के मामले पर केंद्र की निष्क्रियता पर अपने गुस्से का इजहार किया तो यह तुरंत देश भर की मीडिया में सुर्खियां बन गया. एक ही दिन में सरकार हरकत में आ गई. महीनों के कदमताल के बाद मुंबई के प्रवर्तन निदेशालय ने काले धन के सरगना हसन अली को, जिसने कथित रूप से विदेशी बैंकों में 8 अरब डॉलर जमा कर रखे हैं, जल्दी से समन भेज दिया .
* 3 मार्च को मुख्य न्यायाधीश ने देश के इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री द्वारा की गई नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए थॉमस को आखिरकार बेदखल कर दिया. 1999 में उन्होंने शेयर घोटाले में केतन पारेख के खिलाफ नाराजगी जाहिर की थी, तो 2006 में चारा घोटाले में लालू यादव के खिलाफ ऐसी ही नाराजगी दिखाई थी .
* न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की पीठ ने गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने के मामले पर पिछले साल अगस्त में अतिरिक्त सॉलिसिटर पारासरन से कहा था, ''अपने मंत्री को बता दें कि अनाज का मुफ्त वितरण फैसले का हिस्सा है "
* 29 अक्तूबर, 2010 को सीबीआइ को लापरवाही के साथ काम करने के लिए लताड़ा '' कितना लंबा समय आप लेंगे ? क्या और 10 साल ? ''. एक हफ्ते बाद न्यायाधीशों ने प्रधानमंत्री की '' निष्क्रियता और चुप्पी '' पर सवाल उठाते हुए मानो इतिहास ही रच दिया .अदालत ने मनमोहन सिंह से शपथपत्र की मांग की. यह भी पहली बार हुआ .
* इतना ही नहीं,16 दिसंबर को अदालत ने एक दिलचस्प कदम उठाया . उसने सीबीआइ के कामकाज पर नजर रखने का फैसला करते हुए व्यापक जांच के तरीके पर सात सूत्री निर्देश दिए और अपील की कि वह इस '' षड्यंत्र के लाभार्थियों '' , कॉर्पोरेट आकाओं , कारोबार के मालिकों , यहां तक कि सरकारी बैंकों और दूरसंचार की नियामक संस्था 'ट्राइ' की भी जांच करे .
* 2 फरवरी से सीबीआइ ने आरोपितों को गिरफ्तार करना शुरू किया. गिरफ्तार होने वालों में राजा , पूर्व दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा , डायनामिक्स बलवा.ज ( डीबी ) के प्रबंध निदेशक शाहिद बलवा , उसके भाई आसिफ बलवा और दो अन्य शामिल थे . अदालत ने जांच में तेजी लाने के लिए अदालत की पसंद के एक विशेष सरकारी वकील ( जो आम तौर पर सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं ) के अधीन रोज सुनवाई करने वाली विशेष अदालत को जांच का काम देकर एक और नया चलन शुरू करने का फैसला किया .
* ' व्यवस्था को सुधारो ' इस एक वाक्य से कार्यपालिका के साथ साथ न्यायपालिका को भी निर्देश दिया गया . मुख्य न्यायाधीश ने पहले ही दिन उस परंपरा को खत्म कर दिया जिसके तहत हर रोज सुबह मामलों का उल्लेख ( Mention ) किया जाता था ( पहले , गैर-सूचीबद्ध मामले , बिना उल्लेख वाले और बिना बारी के मामलों की सुनवाई के विवेकाधीन अधिकार का खुल कर इस्तेमाल होता था ). इस झ्टके से अभी कई लोग उबरे भी नहीं थे कि तब एक और चोट पड़ गई जब उन्होंने घोषणा की , “ बेतुकी जनहित याचिकाओं “ पर जुर्माना किया जाएगा . ये याचिकाएं पूर्व में मुख्य न्यायाधीश के नियंत्रण में थीं और ऐसा आरोप लगता रहा है कि दबाव बनाने वाले समूहों की ओर से उनकी बहुत मांग थी .
सामाजिक बुराइयों , सत्ता और उसके तंत्र के निष्क्रिय व्यव्हार पर बाध्य होकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जिस प्रकार की टिप्पणियाँ की हैं वह व्यवस्था के लिए शर्मनाक हैं . वे भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीक होकर बोलते हैं . अपनी स्पष्टवादिता से वे जनता के ऐसे नायक बन गए हैं , जो बुराई के खिलाफ लगातार जंग का झंडा बुलंद किए हुए हैं . चाहे वे जस्टिस मार्कंडेय काटजू हों जिन्होंने इज्जत के नाम पर हत्या को सजा-ए-मौत के योग्य अपराध मानने का फैसला सुनाया , चाहे न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर की टिप्पणी हो कि '' भ्रष्टाचार एक रिवाज बन गया है '', चाहे न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी की टिप्पणी हो कि " 100 फोन टैपिंग खुलासा करते हैं कि देश को किस तरह से चलाया जा रहा है " या चाहे न्यायमूर्ति सुरिंदर निज्जर की टिप्पणी हो कि '' 2008 से ये एंजेंसियां कहां सो रही थीं ...? वे तभी हरकत में क्यों आईं जब हमने कदम उठाया ? " या फिर अयोध्या में विवादित रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद स्थल को तीन हिस्सों में बांटने के इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर न्यायमूर्ति आफताब आलम की यह टिप्पणी हो कि यह एक '' विचित्र फैसला है " !
कानूनविद् एन.आर. माधव मेनन इसे ''सजग सक्रियतावाद'' कहते हैं. वे कहते हैं, '' ऐसी व्यापक धारणा बन गई है कि शासन लुंज -पुंज हो गया है . अदालत परिवर्तन का अग्रदूत बन रही है . उसकी सक्रियता कानून से संचालित हो रही है . वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं, ''यहां पूरी तरह बदलाव आया है. अगर ऊपरी पायदान पर ईमानदारी और साहस होगा तो नीचे तक भी इसका असर होगा.''राजनैतिक विश्लेषक आशीष नंदी कहते हैं, ''भ्रष्टाचार शब्द सब की जबान पर चढ़ चुका है , जो शहरी मध्यवर्ग को आंदोलित करता है .'' राजनीति में किसी करिश्माई नेता के अभाव में अदालत ही भरोसे का केंद्र बन गई है .
विदेशों में जमा कालेधन पर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश जीवन रेड्डी की अध्यक्षता और पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की उप- अध्यक्षता में सआईटी गठित कर दी और केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि वह एक नोटिफिकेशन जारी करके इस विशेष जांच दल को मान्यता प्रदान करे. इस विशेष जांच दल में रॉ के डायरेक्टर, रेवेन्यू सेक्रेटरी, रिजर्व बैंक के डिपुटी डायरेक्टर, सीबीडीटी के चेयरमैन, रेवेन्यू इंटेलिजेन्स के डीजी नारकोटिक्स कन्ट्रोल के डीजी, विदेश व्यापार विभाग के संयुक्त सचिव, सीबीआई के निदेशक तथा विदेश खुफिया विभाग के निदेशक शामिल हैं . साथ ही यह भी निर्देश दिया है कि दोनों पूर्व न्यायाधीश समय समय पर जांच की प्रगति से अदालत को अवगत कराते रहेंगे . भारत में बढ़ते कालेधन की मानसिकता की देश के लिए अत्यंत खतरनाक बताते हुए कहा कि विदेशी बैंकों में जमा धन भारत की कमजोरी दर्शाता है . कालेधन पर एक बार फिर केन्द्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि -- " सरकार काले धन के सवाल पर गंभीर नहीं है " .
कालेधन के सवाल पर प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक सभी की लगातार लीपा-पोती और गोल मोल बयानबाजी के कारण ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा संज्ञान लिए जाने से अब यह उम्मीद बनती है कि काले धन के सवाल पर अब निर्णायक प्रगति हो सकेगी . कालेधन के प्रश्न को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में रखकर एक कारगर हस्तक्षेप किया है . न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति एसएस निज्जर की टिप्पणियों से साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदमों से असंतुष्ट है . इसलिए अब उसने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक तेरह सदस्यीय विशेष जांच दल बना दिया है और उन्हें समय के मुताबिक जरूरी आदेश देगा . हालांकि कोर्ट ने भी यह माना है कि विदेशों में जमा काले धन को वापस लाना आसान नहीं है ,
आज शुक्रवार दिनांक 15 जुलाई को केंद्रीय सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मामले की जाँच नयायालय द्वारा नियुक्त की गई " विशेष जाँच दल " द्वारा करवाने के निर्देश को कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण मानते हुए बड़ी पीठ में इसकी अपील दाखिल कर दी है .याचिका में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर पुनर्विचार और वापस लेने की मांग की जिसमें घोड़ा व्यापारी हसन अली समेत काले धन से जुड़े सभी मामलों की जांच के लिए शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों वाले विशेष जांच दल के गठन का आदेश दिया गया था . सरकार ने उस आदेश की समीक्षा और पूरी तरह वापस लेने की मांग की है जिसमें उसे विदेश में जमा काले धन के मुद्दे पर जांच में धीमी गति के लिए अदालत की ओर से फटकार भी लगी थी .
पुनर्याचिका दाखिल करने के इस निर्णय को सरकार की डूबती हुई साख को बचाने के लिए " क्षति नियंत्रण प्रबंधन " के तहत एक कदम ही माना जा रहा है . परन्तु इसका जनता पर विपरीत असर ही पड़ेगा . सरकार को तो विशेष जाँच दल को मान्यता देने और पूरा सहयोग करना चाहिए , क्यूंकि " विशेष जाँच समिति " के बनने से देश की आम जनता में इस विश्वास की स्थापना होगी कि जनता के लूटे गए धन को वापस लाने की सचमुच कोशिश हो रही है . सामान्य स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट के इस कदम को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल माना जाता जा सकता था , परन्तु काले धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा आज जनहित में इतना अहम हो गया है कि किसी भी हलके से ऐसी शिकायत उठने की संभावना न के बराबर है . और फिर सत्ता और सत्ताधारी दल का आचरण भी इस विषय पर कुछ संदिग्ध से स्तिथि बनाये हुए है . ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश में बनी विशेष जाँच दल की निगरानी में समयबद्ध और आशातीत परिणाम निकलेंगे ऐसी जनसाधरण अपेक्षा करता है . अब पुनर्याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का क्या फैसला आता है इसका इन्तजार करेंगे हम लोग ?
विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक ( विप्र वार्ता )
पंडोह मण्डी
विदेशी बैंकों में जमा इस देश के काले धन के विषय पर केन्द्रिय सरकार की अकर्मण्यता पर देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अन्वेषण टीम के गठन के आदेश ने एक बार पुनः यह साबित कर दिया है कि यदि कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही ढंग से करने में असमर्थ हो तो न्यायपालिका को उचित कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ता है . भारतीय लोकतंत्र में सविंधान द्वारा सभी के कर्तव्य निर्धारित किये गए हैं . विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका को सविंधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और कर्तव्यों अनुसार अपनी सीमाओं के अन्दर रहकर ही कार्य करना चाहिए . किसी को भी अतिक्रमण की अनुमति नहीं है .
७० से मध्य ८० के दशक तक आते आते सामाजिक और राजनैतिक मूल्यों का बहुत तेजी से ह्रास हुआ . बढती राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं और निहित व दलगत स्वार्थों की पूर्ती के लिए विधायिका और कार्यपालिका द्वारा उठाये गए बहुत से क़दमों को न्यायालयों में चुनौती दी गई और न्यायपालिका ने न्याय करते हुए अपने निर्णयों द्वारा उनको गैर-कानूनी या असविधानिक ठहराते हुए उन पर रोक लगा दी थी . न्यायपालिका के न्यायोचित निर्णयों से नाखुश उस समय की केन्द्रिय सरकारों ने अपनी प्रभुसत्ता कायम करने की दृष्टि से न्यायालयों को दबाने की कुचेष्टा भी की परन्तु सफलता नहीं मिली . देश , समाज और सविंधान के हित में अपने अधिकार और कर्तव्य क्षेत्र को समझने वाली हमारे देश की स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका को उसके पथ से कोई डिगा नहीं सका .
सत्ता पक्ष के साथ साथ कुछ मिडिया वालों ने न्यायपालिका पर अतिरिक्त न्यायिक सक्रियता का आरोप लगाते हुए उसकी आलोचना भी की परन्तु यह आलोचना निरर्थक ही साबित हुई और हमारी न्यायपालिका अपने स्थापित आदर्शों के अनुरूप सविंधान द्वारा प्रदत्त अपने अधिकारों और कर्तव्यों का निर्वहन कर इस देश के जन सामान्य के ह्रदय में अपना सम्मान बढ़ाते हुए अपना कार्य करती रही . यही एक कारण है जिसके चलते आज हर तरफ से निराश हो चला इस देश का एक साधारण नागरिक भी अपनी प्रत्येक समस्या और अधिकारों की प्राप्ति के लिए न्यायपलिका से ही न्याय की आशा रखता है .
केशवानंद भारती केस में न्यायपालिका की व्यवस्था के बाद सालों साल इस पर बहस भी चली थी . संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकार-क्षेत्र को लेकर कई बार टकराव की स्थितियां भी बनीं . ऐसे हालात तभी बनते हैं जब एक ओर सरकार का अपनी ही संस्थाओं पर नियंत्रण खत्म होता जाता है और दूसरी ओर वह जनता का विश्वास खो देती है . दूरसंचार घोटाले पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ( कैग ) की रिपोर्ट को लेकर कपिल सिब्बल जैसे जिम्मेदार केंद्रीय मंत्री द्वारा किया गया दावा और उस पर न्यायपालिका सहित देशभर में हुई प्रतिक्रिया इसका केवल एक उदाहरण है . विभिन्न मुद्दों पर सरकार द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया ठीक उसी प्रकार से है जैसे भयाक्रांत सेनाएं मैदान छोड़ने से पहले अपने सभी महत्वपूर्ण ठिकानों को ध्वस्त करने लगती हैं .
कार्यपालिका के निश्कर्मन्यता को न्यायपालिका भी अनदेखा कर देगी.....ऐसा सोचना गलत है . और न्यायपालिका ने ऐसा दरशा भी दिया है . अभी हाल के दिनों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ फैसले बहुत ही महत्वपूर्ण और एतिहासिक हैं . भारतीय लोकतंत्र में इनके दूरगामी परिणाम साबित होंगे .
* मार्च में एक सुबह न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी ने जब काले धन के मामले पर केंद्र की निष्क्रियता पर अपने गुस्से का इजहार किया तो यह तुरंत देश भर की मीडिया में सुर्खियां बन गया. एक ही दिन में सरकार हरकत में आ गई. महीनों के कदमताल के बाद मुंबई के प्रवर्तन निदेशालय ने काले धन के सरगना हसन अली को, जिसने कथित रूप से विदेशी बैंकों में 8 अरब डॉलर जमा कर रखे हैं, जल्दी से समन भेज दिया .
* 3 मार्च को मुख्य न्यायाधीश ने देश के इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री द्वारा की गई नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए थॉमस को आखिरकार बेदखल कर दिया. 1999 में उन्होंने शेयर घोटाले में केतन पारेख के खिलाफ नाराजगी जाहिर की थी, तो 2006 में चारा घोटाले में लालू यादव के खिलाफ ऐसी ही नाराजगी दिखाई थी .
* न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की पीठ ने गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने के मामले पर पिछले साल अगस्त में अतिरिक्त सॉलिसिटर पारासरन से कहा था, ''अपने मंत्री को बता दें कि अनाज का मुफ्त वितरण फैसले का हिस्सा है "
* 29 अक्तूबर, 2010 को सीबीआइ को लापरवाही के साथ काम करने के लिए लताड़ा '' कितना लंबा समय आप लेंगे ? क्या और 10 साल ? ''. एक हफ्ते बाद न्यायाधीशों ने प्रधानमंत्री की '' निष्क्रियता और चुप्पी '' पर सवाल उठाते हुए मानो इतिहास ही रच दिया .अदालत ने मनमोहन सिंह से शपथपत्र की मांग की. यह भी पहली बार हुआ .
* इतना ही नहीं,16 दिसंबर को अदालत ने एक दिलचस्प कदम उठाया . उसने सीबीआइ के कामकाज पर नजर रखने का फैसला करते हुए व्यापक जांच के तरीके पर सात सूत्री निर्देश दिए और अपील की कि वह इस '' षड्यंत्र के लाभार्थियों '' , कॉर्पोरेट आकाओं , कारोबार के मालिकों , यहां तक कि सरकारी बैंकों और दूरसंचार की नियामक संस्था 'ट्राइ' की भी जांच करे .
* 2 फरवरी से सीबीआइ ने आरोपितों को गिरफ्तार करना शुरू किया. गिरफ्तार होने वालों में राजा , पूर्व दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा , डायनामिक्स बलवा.ज ( डीबी ) के प्रबंध निदेशक शाहिद बलवा , उसके भाई आसिफ बलवा और दो अन्य शामिल थे . अदालत ने जांच में तेजी लाने के लिए अदालत की पसंद के एक विशेष सरकारी वकील ( जो आम तौर पर सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं ) के अधीन रोज सुनवाई करने वाली विशेष अदालत को जांच का काम देकर एक और नया चलन शुरू करने का फैसला किया .
* ' व्यवस्था को सुधारो ' इस एक वाक्य से कार्यपालिका के साथ साथ न्यायपालिका को भी निर्देश दिया गया . मुख्य न्यायाधीश ने पहले ही दिन उस परंपरा को खत्म कर दिया जिसके तहत हर रोज सुबह मामलों का उल्लेख ( Mention ) किया जाता था ( पहले , गैर-सूचीबद्ध मामले , बिना उल्लेख वाले और बिना बारी के मामलों की सुनवाई के विवेकाधीन अधिकार का खुल कर इस्तेमाल होता था ). इस झ्टके से अभी कई लोग उबरे भी नहीं थे कि तब एक और चोट पड़ गई जब उन्होंने घोषणा की , “ बेतुकी जनहित याचिकाओं “ पर जुर्माना किया जाएगा . ये याचिकाएं पूर्व में मुख्य न्यायाधीश के नियंत्रण में थीं और ऐसा आरोप लगता रहा है कि दबाव बनाने वाले समूहों की ओर से उनकी बहुत मांग थी .
सामाजिक बुराइयों , सत्ता और उसके तंत्र के निष्क्रिय व्यव्हार पर बाध्य होकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जिस प्रकार की टिप्पणियाँ की हैं वह व्यवस्था के लिए शर्मनाक हैं . वे भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीक होकर बोलते हैं . अपनी स्पष्टवादिता से वे जनता के ऐसे नायक बन गए हैं , जो बुराई के खिलाफ लगातार जंग का झंडा बुलंद किए हुए हैं . चाहे वे जस्टिस मार्कंडेय काटजू हों जिन्होंने इज्जत के नाम पर हत्या को सजा-ए-मौत के योग्य अपराध मानने का फैसला सुनाया , चाहे न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर की टिप्पणी हो कि '' भ्रष्टाचार एक रिवाज बन गया है '', चाहे न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी की टिप्पणी हो कि " 100 फोन टैपिंग खुलासा करते हैं कि देश को किस तरह से चलाया जा रहा है " या चाहे न्यायमूर्ति सुरिंदर निज्जर की टिप्पणी हो कि '' 2008 से ये एंजेंसियां कहां सो रही थीं ...? वे तभी हरकत में क्यों आईं जब हमने कदम उठाया ? " या फिर अयोध्या में विवादित रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद स्थल को तीन हिस्सों में बांटने के इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर न्यायमूर्ति आफताब आलम की यह टिप्पणी हो कि यह एक '' विचित्र फैसला है " !
कानूनविद् एन.आर. माधव मेनन इसे ''सजग सक्रियतावाद'' कहते हैं. वे कहते हैं, '' ऐसी व्यापक धारणा बन गई है कि शासन लुंज -पुंज हो गया है . अदालत परिवर्तन का अग्रदूत बन रही है . उसकी सक्रियता कानून से संचालित हो रही है . वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं, ''यहां पूरी तरह बदलाव आया है. अगर ऊपरी पायदान पर ईमानदारी और साहस होगा तो नीचे तक भी इसका असर होगा.''राजनैतिक विश्लेषक आशीष नंदी कहते हैं, ''भ्रष्टाचार शब्द सब की जबान पर चढ़ चुका है , जो शहरी मध्यवर्ग को आंदोलित करता है .'' राजनीति में किसी करिश्माई नेता के अभाव में अदालत ही भरोसे का केंद्र बन गई है .
विदेशों में जमा कालेधन पर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश जीवन रेड्डी की अध्यक्षता और पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की उप- अध्यक्षता में सआईटी गठित कर दी और केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि वह एक नोटिफिकेशन जारी करके इस विशेष जांच दल को मान्यता प्रदान करे. इस विशेष जांच दल में रॉ के डायरेक्टर, रेवेन्यू सेक्रेटरी, रिजर्व बैंक के डिपुटी डायरेक्टर, सीबीडीटी के चेयरमैन, रेवेन्यू इंटेलिजेन्स के डीजी नारकोटिक्स कन्ट्रोल के डीजी, विदेश व्यापार विभाग के संयुक्त सचिव, सीबीआई के निदेशक तथा विदेश खुफिया विभाग के निदेशक शामिल हैं . साथ ही यह भी निर्देश दिया है कि दोनों पूर्व न्यायाधीश समय समय पर जांच की प्रगति से अदालत को अवगत कराते रहेंगे . भारत में बढ़ते कालेधन की मानसिकता की देश के लिए अत्यंत खतरनाक बताते हुए कहा कि विदेशी बैंकों में जमा धन भारत की कमजोरी दर्शाता है . कालेधन पर एक बार फिर केन्द्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि -- " सरकार काले धन के सवाल पर गंभीर नहीं है " .
कालेधन के सवाल पर प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक सभी की लगातार लीपा-पोती और गोल मोल बयानबाजी के कारण ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा संज्ञान लिए जाने से अब यह उम्मीद बनती है कि काले धन के सवाल पर अब निर्णायक प्रगति हो सकेगी . कालेधन के प्रश्न को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में रखकर एक कारगर हस्तक्षेप किया है . न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति एसएस निज्जर की टिप्पणियों से साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदमों से असंतुष्ट है . इसलिए अब उसने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक तेरह सदस्यीय विशेष जांच दल बना दिया है और उन्हें समय के मुताबिक जरूरी आदेश देगा . हालांकि कोर्ट ने भी यह माना है कि विदेशों में जमा काले धन को वापस लाना आसान नहीं है ,
आज शुक्रवार दिनांक 15 जुलाई को केंद्रीय सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मामले की जाँच नयायालय द्वारा नियुक्त की गई " विशेष जाँच दल " द्वारा करवाने के निर्देश को कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण मानते हुए बड़ी पीठ में इसकी अपील दाखिल कर दी है .याचिका में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर पुनर्विचार और वापस लेने की मांग की जिसमें घोड़ा व्यापारी हसन अली समेत काले धन से जुड़े सभी मामलों की जांच के लिए शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों वाले विशेष जांच दल के गठन का आदेश दिया गया था . सरकार ने उस आदेश की समीक्षा और पूरी तरह वापस लेने की मांग की है जिसमें उसे विदेश में जमा काले धन के मुद्दे पर जांच में धीमी गति के लिए अदालत की ओर से फटकार भी लगी थी .
पुनर्याचिका दाखिल करने के इस निर्णय को सरकार की डूबती हुई साख को बचाने के लिए " क्षति नियंत्रण प्रबंधन " के तहत एक कदम ही माना जा रहा है . परन्तु इसका जनता पर विपरीत असर ही पड़ेगा . सरकार को तो विशेष जाँच दल को मान्यता देने और पूरा सहयोग करना चाहिए , क्यूंकि " विशेष जाँच समिति " के बनने से देश की आम जनता में इस विश्वास की स्थापना होगी कि जनता के लूटे गए धन को वापस लाने की सचमुच कोशिश हो रही है . सामान्य स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट के इस कदम को न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल माना जाता जा सकता था , परन्तु काले धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा आज जनहित में इतना अहम हो गया है कि किसी भी हलके से ऐसी शिकायत उठने की संभावना न के बराबर है . और फिर सत्ता और सत्ताधारी दल का आचरण भी इस विषय पर कुछ संदिग्ध से स्तिथि बनाये हुए है . ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश में बनी विशेष जाँच दल की निगरानी में समयबद्ध और आशातीत परिणाम निकलेंगे ऐसी जनसाधरण अपेक्षा करता है . अब पुनर्याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का क्या फैसला आता है इसका इन्तजार करेंगे हम लोग ?
विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक ( विप्र वार्ता )
पंडोह मण्डी


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