Thursday, October 20, 2011

रीति-नीति और रणनीति के मध्य फंसी राजनीति

( यह लेख अमर ज्वाला में प्रकाशित हो चुका है ) 
एक भागम-भाग सी मची है देश में. सभी व्यस्त हैं. देश की सरकारें-पक्ष-विपक्ष, सरकारों  का पूरा तंत्र देश का आम और खास नागरिक और पुलिस से लेकर अपराधी और यहाँ तक कि समाज विरोधी तत्व  भी  व्यस्त हैं.  बेकार और नकारा है इस देश कि रीति-नीतियां जिनको कोई काम नहीं. दादी-नानी माँ की कथाओं में या ग्रंथों और सरकारी फाइलों में बेकार और नकारा पडी धूल चाट रही हैं बेचारी. कोई पूछने वाला नहीं है. पक्ष विपक्ष में कहीं भी उनकी कोई चर्चा नहीं कर रहा है. पुरानी रीति- नीतियों पर अमल की बात तो दूर, नई विकासोन्मुखी    नीतियों का भी सृजन भी  नहीं हो रहा है. समस्याएं बढ़ती ही जा रही हैं. बहुत अजीब से हालात  हैं.
स्वतंत्रता पश्चात् के दो दशकों तक तो  यह राष्ट्र जिस तरह के लोगों द्वारा संचालित एवं शासित था , उन सबकी सोच स्पष्ट तौर पर मध्यमार्गी और राष्ट्रवादी थीं. वे शासक रीति-नीति, स्थापित मान्यताओं एवं पूर्व निर्धारित प्रणाली के अनुरूप ही राष्ट्र का संचालन कर रहे थे . उन्होंने ऐसा परिवेश तैयार किया था जिसमें वृद्धिएवंविकासके दुपहिए पर एक टिकाऊ राष्ट्र  का द्रुतगति से विकास सुनिश्चित था. इसमें कोई शक नहीं अल्पविकसित और विकासोन्मुख इस देश को लूटकर समर्थवान और जुगाडू किस्म का वर्ग स्वतंत्रता पश्चात् बनी नीतियों में उपलब्ध  असंख्य छिद्रों और भ्रष्ट तंत्र की मेहरबानी से अवश्य ही लाभान्वित हुआ है. विकास  की बहती  धारा के नाम पर उसने  आपार धन सम्पदा अर्जित की है. परन्तु इसके विपरीत एक बहुत बड़े वर्ग को विकास का लाभ मिलने की अपेक्षा जीवन की आवश्यक और आधारभूत जरूरतों को हासिल करने के लिए दुश्वारियों का  ही अधिक सामना करना पड़  रहा है.   मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय समाज को विश्वास था  कि इस देश की राजनीति, रीतिगत इस प्रकार की नीतियां बनायेगी जिससे  उसका कल्याण हो सके.   सरकारी आंकड़ों  के  दावे भी साल दर साल विश्वास बढ़ा रहे थे कि प्रति व्यक्ति आय, औसत आयु में बढ़त, बाल-मृत्यु दर में गिरावट, मूल्यों में स्थिरतासाक्षरता दर में वृद्धि, गरीबी रेखा में सिमटाव जैसे सूचकांक सतत सार्थक दिशा में बढ़ते जाएंगे और अंततः विज्ञान-प्रौद्योगिकी द्वारा हासिल की गई विकास की धारा का लाभ सभी को प्राप्त होगा.
देश के जन-साधारण से अब वोह सब झेला नहीं जा रहा  है जो उसने विगत ६० वर्षों में झेला  है.  कमजोर वर्ग को आशा थी  कि  बेरोजगारों को रोजगार, हर मुंह को निवाला, सबके  सिर को छत मुहैया होगी.  ऐसा नहीं है कि विज्ञान-प्रौद्योगिकी ने हमें पूरी तरह से निराश कर दिया हो. परन्तु स्वतंत्रता पश्चात् लोकशाही की स्थापना ने  आम आदमी में जिस प्रकार की आशा की किरण जगाई थी या  जिस प्रकार की खुशहाली की कल्पना आम और वंचित जन साधारण ने की थी वह सब अभी भी उससे कोसों दूर है.  बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार और बढते अपराध से त्रस्त और वंचित जनसाधारण का विश्वास  लोकतंत्र, सरकारी नीतियों और  वर्तमान शासन व्यवस्था से हटने लगा है. लाल किले की प्राचीर से की गई घोषणाओं या सांसद द्वारा पारित नीतियों और दलों द्वारा चुनाव पूर्व किये गए तमाम वायदे सब्ज बाग़ साबित हो रहे हैं. महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और बढते अपराध से त्रस्त आम-जन आज हैरान और परेशान है. वह  बहुत अचरज से पक्ष और विपक्ष के  राजनैतिक दलों और सरकारों को देख रहा है कि चुनाव पूर्व रीति-नीति व लोक कल्याण की बड़ी बड़ी बातें करने वाले यह तमाम राजनैतिक दल आज कर क्या रहे हैं ?                         
 रीति तो यह थी कि प्रजा की खुशहाली और सुरक्षा का कार्य देखना राजा का राज-धर्म होता था. रीति  तो यह रही है कि प्रजा की कुशलता और तंत्र की कर्त्तव्य निष्ठता की जाँच के लिए  राजा भेष बदल कर रात को राज्य का दौरा करता था. रीति तो यह भी रही है यदि प्रजा किसी भी प्रकार से कष्ट में है तो राजा न केवल उनके लगान आदि माफ करता था बल्कि हर प्रकार से भरसक सहायता भी करता था. राज्य की नीतियां हर प्रकार से प्रजा की खुशहाली के लिए बनाई  जाती थीं . यह ठीक है कि आज कोई भी यह नहीं कह सकता कि  विकास हुआ ही नहींहुआ है पर केवल मुट्ठी भर लोगों का. देश और समाज  की तस्वीर वहीं थम सी गई है जहां वह अस्सी के दशक के अंत में थी. अब आम आदमी समझने लगा है कि विकास और वृद्धि का पहिया सिर्फ अमीरों को आगे बढ़ाने के लिए दौड़ रहा है. परिणामस्वरूप गरीब और मध्यमवर्गीय समाज में असुरक्षा की भावना का व्यापक प्रसार हो रहा है. राज नेताओं और ऊपरी तबके की जीवनशैली का भौंड़ा प्रदशर्न शेष समाज को कुंठित कर रहा है. अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से आम जनमानस के मन में आक्रोश बढ़ रहा है.आज इस देश के एक बहुत बड़े वर्ग को ऐसा लगता है कि उनके लिए न तो कोई रीति है और न ही नीति. न जाने किस दिशा को जा रही है आज की राजनीति ?
लोकतंत्र में राजनैतिक दल और उनके नेता जन सेवक कहलाते हैं . जन-प्रतिनिधी चुनी हुई सरकार के रूप में शासन सत्ता पर काबिज होकर जन कल्याण की नीतियां बना कर विकास के  सुफल का लाभ  देश  के अंतिम  व्यक्ति  तक  पहुंचाते  हैं. परन्तु आज  की राजनीति  का आचरण  कुछ  और ही है. जन-सामान्य और लोक-कल्याण के हितों की लगातार अनदेखी, विकास के नाम पर एकत्रित होने वाले करों का किस प्रकार से दुरपयोग हो रहा है वह किसी से छुपा नहीं है. अरबों-खरबों  के बजट वाले इस देश का जन  साधारण  अब यह समझने लगा है कि शासक की प्रचारोन्मुखी सहानुभूति उसके लिए है और विकास, समृद्धि और सामर्थ्य  किसी दूसरे  के लिए  आरक्षित की जा चुकी है. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी  सेवाओं में निरंतर  गिरावट दर्ज हो रही है.  नई शिक्षा प्रणाली में सौ फीसदी अंक पाना आसान है, पर गुणवत्ता वाले महाविद्यालय में मनचाहे विषय के पाठ्यक्रम में प्रवेश पाना दुष्कर.  प्रगति और सुखकर जीवन की मान्य धारणाएं डावांडोल है. वर्तमान  परिस्तिथियों  के चलते  विधायिका और कार्यपालिका के ( प्रधानमंत्री, मंत्रियों और अधिकारीयों सहित )  प्रति आम आदमी के मन में शायद ही किसी प्रकार का सम्मान बचा हो. यह सब एक दिन का परिणाम नहीं है.  संसद की गरिमा के इस प्रकार से हनन के लिए कौन  जिम्मेदार है  ?  इस दौर में विचारधाराओं  का भी अवमूल्यन हो रहा है.  साम्यवादी हों या रामवादी, धर्मधुरंधर हों या धर्मनिरपेक्ष गांधीवादी, रूढ़िवादी हो या प्रगतिवादी हर किसी का वैचारिक ह्रास  हुआ  है.  कोई भी वैचारिक संस्था या  राजनैतिक दल उम्मीद पर खरा नहीं  उतर पाया . जन-साधारण की अपेक्षाओं की कसौटी पर शने: शने: गिरावट और राजनैतिक मूल्यों के  ह्रास के कारण ही देश और संसदीय परम्पराओं की दुर्दशा हो रही है.
अब प्रश्न  उठना लाजमी  है कि यदि वर्तमान राजनितिक दल पथ-भ्रष्ट हो रीति-नीति की राह छोड़ चुके है तो वह वास्तव में कर क्या रहे हैंयदि गौर करें तो पाएंगे आज   बयानबाजी  और  आरोप-प्रत्यारोप का  दौर  चल  रहा  है. एक दूरसे की टांग  घसीटने की इस प्रतियोगिता में जिस प्रकार की अशोभनीय भाषा का प्रयोग किया जा रहा है उसके लिए  सभी राजनैतिक दल और नेता समान रूप से दोषी हैं. जन-सामान्य की मौलिक जरूरतों को पूरा करने के लिए रीतिगत आचरण, लोक-कल्याण की नीति बनाने  या उन पर चर्चा करने की अपेक्षा  उनका सारा का सारा ध्यान और उर्जा सत्ता पर चिपके रहने पर  ही  केन्द्रित है.  जो   सत्ता विहीन  हैं वह सत्ता-नशीन को हटाने और स्वयं बैठने  तथा किस दल के साथ गठबंधन किया जाये कि गद्दीनशीन होने का मार्ग प्रशश्त हो और आने वाले अगले पांच वर्ष करोड़ों की लूट-मार संभव कर अपनी व अपने परिवार की तिजोरियां भारी जा सकें. आज कि राजनीति इसी रणनीति में व्यस्त हैं.
आज देश की राजनीति और  राजनैतिक दलों की सारी शक्ति और उर्जा  इसी  रणनीति को बनाने में खर्च हो रही है कि किस प्रकार अपने विरोधी को महा-भ्रष्टाचारी, किसान-मजदूर-दलित और अल्पसंख्यक विरोधी, सांप्रदायिक, जन विरोधी aur  महिला विरोधी  साबित किया जा सके. इस देश की भोली भाली आम जनता के साथ  यह कैसा भद्दा मजाक हो रहा हैऐसा कब तक चलेगालाखो टन अनाज का गोदामों में सड़ जाना, अरबों-खरबों रुपयों के आर्थिक घोटाले, अरबो-खरबों का काला धन विदेशी बैंकों में जमा होना और अरबो-खरबों की धन सम्पदा का मंदिरों के तहखानों में सैंकड़ो वर्षों से यूँ ही पड़ा रहना दर्शाता है कि इस देश में किसी भी चीज की कमी नहीं है. यदि कमी है तो केवल कल्याणकारी नीतियों की, कमी है तो भ्रष्टाचार मुक्त ईमानदार और कर्तव्य-परायण शासन और प्रशासन की, कमी है तो राजनैतिक इच्छा शक्ति और कुशल देश भक्त राजनैतिक नेतृत्व की जो  रीतियों-अनुसार अपने राजनैतिक विरोधी को पछाड़ने की रणनीति त्याग कर एक स्वच्छ राजनीति के तहत देश में उपलब्ध संसाधनों को जनकल्याण की विकासोन्मुखी नीतियों में लगा देश के सूदूर गावं कस्बों में रहने वाले अंतिम व्यक्ति का वास्तविक व सर्वांगीण विकास करे.
इस देश की १२५ करोड़ जनता जानना चाहती है कि रीति-नीति और रणनीति  के मध्य फंसी इस देश की  राजनीति के पास लोक कल्याण और देश हित की भी कोई रण नीति है क्या ?

विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक ( विप्र वार्ता )
पंडोह, मंडी .

No comments:

Post a Comment