(यह लेख अमर ज्वाला साप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुका है )
इसमें कोई दो राय नहीं कि कानून पारित संसद और सांसदों के कार्य क्षेत्र में आता है. सम्बंधित मंत्रालय पहले अधिनियम का का प्रारूप तैयार करवाता है. फिर उसे मंत्रीमंडल के सामने रखा जाता है. मंत्रीमंडल से अनुमति मिलने के पश्चात् उसे संसद में पेश किया जाता है वहाँ यदि सरकार चाहे तो संसद के पटल पर ही सीधा रख दिया जाता है अन्यथा उस मंत्रालय की स्थाई समिति जिसे मिनी संसद भी कहते हैं के पास सुझावों और चर्चा के लिए भेज दिया जाता है, फिर वही स्थाई समिति सुझावों के साथ उसे संसद के पटल पर पारित होने के लिए रखती है. यह तो हुई किसी भी अधिनियम को पारित करने का संसदीय अधिकार या संसदीय परम्परा की बात. परन्तु कौन सा कानून इस देश के लिए कितना आवश्यक है और उसे कब बनाया जाये इसका निर्णय कौन करेगा ? इस देश की जनता ? जी नहीं, इस देश की लगभग 124 करोड़ जनता-जनार्दन इस विषय में कोई अधिकार नहीं रखती. कहने को तो संसद ही सभी कानून बनाती है, परन्तु सांसदों से बनने वाली संसद में होने वाले सभी कार्य और निर्णय गुण-दोष के आधार पर न होकर मात्र राजनैतिक हित को साधते हुए दलीय बहुमत के आधार पर ही होते है. इतना ही नहीं अब तो कौन सा कानून बने इसका निर्णय भी मंत्रियों के निजी या उनकी संस्थाओं के लाभ-हानि को मद्दे नजर रखते हुए ही हो रहे हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण विगत दिनों मंत्रीमंडल के उस फैसले से परिलक्षित होता है जिसमें बहुप्रतीक्षित " राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक " केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी न मिलने के कारण, अधर में ही लटका दिया गया.
पत्रकारिता करते-करते तिकड़म से राज्य सभा के सदस्य और फिर बीसीसीआई में घुसे और वर्तमान में मंत्री बने अपने राजीव शुक्ल ने खेल विधेयक पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुये कहा था..आरटीआई के तहत सिर्फ उन संगठनों को आना चाहिए जो सरकार से धन लेते हैं और बोर्ड कोई सरकारी धन नहीं लेता इसलिए उस पर आरटीआई लागू नहीं होना चाहिए. यह एक नई व्याख्या का प्रतिपादन कर रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि मंत्रीमंडल में इस विधेयक को मंजूरी न मिलने के पीछे एक बड़ा कारण बीसीसीआई की आपत्ति ही है क्यूंकि अधिकतर मंत्री उससे जुड़े हुए हैं और उन्हीं को सबसे अधिक तकलीफ भी है कि उनकी मौज मस्ती पर अंकुश लगाया जा रहा है. दूसरी ओर खेल निकायों की स्वायत्ता पर इस विधेयक के प्रभाव को लेकर भी चिंता जताई गई थी.
बीसीसीआई और आईओए ने खेल विधेयक के प्रस्तावों पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि वे एक स्वायत्त संस्था की तरह ही काम करते रहना चाहते हैं ताकि वे सार्वजनिक जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त रहें. विधेयक में खेल महासंघों को सूचना के अधिकार के तहत लाने का भी प्रावधान है जिस पर बीसीसीआई को सख्त आपत्ति है. क्रिकेट बोर्ड की परेशानी यह भी थी कि यदि उसे इस विधेयक के तहत लाकर एनएसएफ में तब्दील किया जाता तो उसे विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) के नियमों को भी मानना पड़ता, जिसका भारतीय क्रिकेटर हमेशा विरोध करते आए हैं. विधेयक में यह भी कहा गया था कि खेल महासंघों में कम से कम 25 प्रतिशत पद पूर्व खिलाड़ियों के लिए आरक्षित किये जाएं और सभी खेल प्रशासकों के लिए 70 वर्ष की अधिकतम आयु सीमा तय कर दी जाए.
देश के तमाम खेल संघ अपनी कारगुजारिओं के चलते लम्बे समय से चर्चा का विषय बने हुए है. इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी यदि यह कहा जाये कि यह तो नाम मात्र के ही खेल-संघ हैं वर्ना अधिकतर खेल संघों में विभिन्न खेलों के खिलाडियों की अपेक्षा बड़े नौकरशाहों एवं राजनैतिक खिलाडियों की ही भरमार है जो वर्षों से इन खेल संघों पर अपने रसूख और पैसे के दम पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं. राष्ट्रीय खेल महासंघों के अध्यक्षों और अन्य बड़े पदाधिकारियों के कार्यकाल पर अंकुश लगाने और उनके लिए सेवानिवृत्ति की आयु तय करने के लिए लाए जा रहे इस विधेयक पर भारतीय ओलिम्पिक संघ (आईओए) पहले ही आपत्ति दर्ज करा चुका था जबकि इसके दायरे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को लाने की खेल मंत्री अजय माकन की मंशा का भीतर खाते और मंत्रीमंडल की बैठक में विरोध हो गया और अंततः यह विधेयक ख़ारिज कर दिया गया. मंत्रीमंडल की बैठक में इस विधेयक को ठीक उसी प्रकार से घेर लिया गया जैसे कि महाभारत में कौरवों की सैना ने वीर-अभिमन्यु को युद्ध में घेर लिया था. दुश्मनों की विशाल सैना का सामना वीर अभिमन्यु अधिक देर तक कर न सका और वीरगति को प्राप्त हुआ.
बताया जाता है कि मंत्रिमंडल की बैठक में पांच मंत्री विलासराव देशमुख, शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, फारुख अब्दुल्ला और सीपी जोशी मौजूद थे. मंत्रिमंडल की समीक्षा बैठक में इस खेल विधेयक को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई. जिस देश में चहुँ दिशाओं में फैले भ्रष्टाचार को लेकर एक ऐतिहासिक आन्दोलन चलाया गया हो, जहाँ केन्द्र सरकार की भद्द पिट रही हो, केन्द्र के मंत्री जनता से हठयोग, अभिमानयोग कर रहे हों, इसी बीच खेल मंत्री अजय माकन द्वारा प्रस्तुत ‘‘राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक’’ का अपने ही कबीने के वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा औंधे मुँह बिल को पटकनी देने से केन्द्र की बची-खुची साख को भी धूल में मिला दिया है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि कानून पारित संसद और सांसदों के कार्य क्षेत्र में आता है. सम्बंधित मंत्रालय पहले अधिनियम का का प्रारूप तैयार करवाता है. फिर उसे मंत्रीमंडल के सामने रखा जाता है. मंत्रीमंडल से अनुमति मिलने के पश्चात् उसे संसद में पेश किया जाता है वहाँ यदि सरकार चाहे तो संसद के पटल पर ही सीधा रख दिया जाता है अन्यथा उस मंत्रालय की स्थाई समिति जिसे मिनी संसद भी कहते हैं के पास सुझावों और चर्चा के लिए भेज दिया जाता है, फिर वही स्थाई समिति सुझावों के साथ उसे संसद के पटल पर पारित होने के लिए रखती है. यह तो हुई किसी भी अधिनियम को पारित करने का संसदीय अधिकार या संसदीय परम्परा की बात. परन्तु कौन सा कानून इस देश के लिए कितना आवश्यक है और उसे कब बनाया जाये इसका निर्णय कौन करेगा ? इस देश की जनता ? जी नहीं, इस देश की लगभग 124 करोड़ जनता-जनार्दन इस विषय में कोई अधिकार नहीं रखती. कहने को तो संसद ही सभी कानून बनाती है, परन्तु सांसदों से बनने वाली संसद में होने वाले सभी कार्य और निर्णय गुण-दोष के आधार पर न होकर मात्र राजनैतिक हित को साधते हुए दलीय बहुमत के आधार पर ही होते है. इतना ही नहीं अब तो कौन सा कानून बने इसका निर्णय भी मंत्रियों के निजी या उनकी संस्थाओं के लाभ-हानि को मद्दे नजर रखते हुए ही हो रहे हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण विगत दिनों मंत्रीमंडल के उस फैसले से परिलक्षित होता है जिसमें बहुप्रतीक्षित " राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक " केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी न मिलने के कारण, अधर में ही लटका दिया गया.
पत्रकारिता करते-करते तिकड़म से राज्य सभा के सदस्य और फिर बीसीसीआई में घुसे और वर्तमान में मंत्री बने अपने राजीव शुक्ल ने खेल विधेयक पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुये कहा था..आरटीआई के तहत सिर्फ उन संगठनों को आना चाहिए जो सरकार से धन लेते हैं और बोर्ड कोई सरकारी धन नहीं लेता इसलिए उस पर आरटीआई लागू नहीं होना चाहिए. यह एक नई व्याख्या का प्रतिपादन कर रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि मंत्रीमंडल में इस विधेयक को मंजूरी न मिलने के पीछे एक बड़ा कारण बीसीसीआई की आपत्ति ही है क्यूंकि अधिकतर मंत्री उससे जुड़े हुए हैं और उन्हीं को सबसे अधिक तकलीफ भी है कि उनकी मौज मस्ती पर अंकुश लगाया जा रहा है. दूसरी ओर खेल निकायों की स्वायत्ता पर इस विधेयक के प्रभाव को लेकर भी चिंता जताई गई थी.
बीसीसीआई और आईओए ने खेल विधेयक के प्रस्तावों पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि वे एक स्वायत्त संस्था की तरह ही काम करते रहना चाहते हैं ताकि वे सार्वजनिक जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त रहें. विधेयक में खेल महासंघों को सूचना के अधिकार के तहत लाने का भी प्रावधान है जिस पर बीसीसीआई को सख्त आपत्ति है. क्रिकेट बोर्ड की परेशानी यह भी थी कि यदि उसे इस विधेयक के तहत लाकर एनएसएफ में तब्दील किया जाता तो उसे विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) के नियमों को भी मानना पड़ता, जिसका भारतीय क्रिकेटर हमेशा विरोध करते आए हैं. विधेयक में यह भी कहा गया था कि खेल महासंघों में कम से कम 25 प्रतिशत पद पूर्व खिलाड़ियों के लिए आरक्षित किये जाएं और सभी खेल प्रशासकों के लिए 70 वर्ष की अधिकतम आयु सीमा तय कर दी जाए.
देश के तमाम खेल संघ अपनी कारगुजारिओं के चलते लम्बे समय से चर्चा का विषय बने हुए है. इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी यदि यह कहा जाये कि यह तो नाम मात्र के ही खेल-संघ हैं वर्ना अधिकतर खेल संघों में विभिन्न खेलों के खिलाडियों की अपेक्षा बड़े नौकरशाहों एवं राजनैतिक खिलाडियों की ही भरमार है जो वर्षों से इन खेल संघों पर अपने रसूख और पैसे के दम पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं. राष्ट्रीय खेल महासंघों के अध्यक्षों और अन्य बड़े पदाधिकारियों के कार्यकाल पर अंकुश लगाने और उनके लिए सेवानिवृत्ति की आयु तय करने के लिए लाए जा रहे इस विधेयक पर भारतीय ओलिम्पिक संघ (आईओए) पहले ही आपत्ति दर्ज करा चुका था जबकि इसके दायरे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को लाने की खेल मंत्री अजय माकन की मंशा का भीतर खाते और मंत्रीमंडल की बैठक में विरोध हो गया और अंततः यह विधेयक ख़ारिज कर दिया गया. मंत्रीमंडल की बैठक में इस विधेयक को ठीक उसी प्रकार से घेर लिया गया जैसे कि महाभारत में कौरवों की सैना ने वीर-अभिमन्यु को युद्ध में घेर लिया था. दुश्मनों की विशाल सैना का सामना वीर अभिमन्यु अधिक देर तक कर न सका और वीरगति को प्राप्त हुआ.
बताया जाता है कि मंत्रिमंडल की बैठक में पांच मंत्री विलासराव देशमुख, शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, फारुख अब्दुल्ला और सीपी जोशी मौजूद थे. मंत्रिमंडल की समीक्षा बैठक में इस खेल विधेयक को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई. जिस देश में चहुँ दिशाओं में फैले भ्रष्टाचार को लेकर एक ऐतिहासिक आन्दोलन चलाया गया हो, जहाँ केन्द्र सरकार की भद्द पिट रही हो, केन्द्र के मंत्री जनता से हठयोग, अभिमानयोग कर रहे हों, इसी बीच खेल मंत्री अजय माकन द्वारा प्रस्तुत ‘‘राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक’’ का अपने ही कबीने के वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा औंधे मुँह बिल को पटकनी देने से केन्द्र की बची-खुची साख को भी धूल में मिला दिया है.
खेल मंत्री ने प्रस्तावित खेल अधिनियम के माध्यम से ही कुछ बंधन जैसे उम्र का बंधन, कार्यकाल की निश्चित अवधि, लगातार दो बार पदों पर नहीं रह सकते, सभी संघ ‘‘ सूचना का अधिकार ’’ के दायरे में रहेंगे आदि आदि के पाश में बांधना चाहा था. अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आई.सी.सी.), भारतीय क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड के अध्यक्षों का अपना स्वार्थ का तर्क यह है कि जब हम सरकार से किसी भी तरह की वित्तीय मदद लेते ही नहीं हैं तो फिर सरकार का हमारे ऊपर नियंत्रण कैसा ? ऐसा लगता है कि सभी खेल अध्यक्ष शायद आगे आने वाले खतरों विशेषतः ‘‘सूचना का अधिकार’’ से डरे-सहमें से हैं और हो भी क्यों न अपने एक दबंग साथी कलमाड़ी का हश्र जो उन्होंने देख लिया, सो अब डरना तो जायज है. कल जनता एक-एक पाई का हिसाब मांगेगी, फिर अभी की तरह मनमर्जी, मनमानी पैसों की फिजूल खर्ची, खिलाड़ियों की फिटनेस, खिलाड़ी चुनाव के मापदण्ड, आय-व्यय जैसी ढेरों जानकारियां जब जनता लेगी, आई.सी.सी., बी.सी.सी.आई. जैसी अकूत सम्पत्ति जिनको उनके अध्यक्ष अपनी मिल्कियत समझ रहे हैं या बे़जा उपयोग कर रहे हैं सभी के पोल की कलई खुल जायेगी। यदि खेल संघों के अध्यक्ष भ्रष्ट नहीं हैं तो अजय माकन और केन्द्र सरकार के ईमानदार प्रयास से क्यों घबराए हुए हैं ? नेताओं मंत्रियों को छोड़ दें तो अधिकांश खिलाड़ी इस बिल से सहमत ही नजर आए फिर चाहे वह कपिलदेव हो या कीर्ति आजाद या चेतन चौहान हो. सभी का केवल यही कहना है कि सरकार द्वारा बनाए जा रहे कानून को तोड़ने या बनने से रोकने का हमारा कोई भी हक नहीं है. जब हम सरकार से अन्य सुविधाएँ मांगते हैं तो फिर सरकार के नियमों को ना मानने की हिमाकत भी कैसे कर सकते हैं ?
अन्ना के अनशन और जनता के आन्दोलन से पिटी सरकार के एक अदने से मंत्री ने खेलों और खेल संघों में ‘‘ पारदर्शिता एवं जवाबदेही ’’ के लिए ही खेल अधिनियम के माध्यम से वर्तमान खेल व्यवस्था में सुधार के साथ-साथ सरकार की छवि सुधारने का यह एक ईमानदार प्रयास ही था. खेलमंत्री अजय माकन का यह प्रयास था कि इस खेल विधेयक को संसद के इसी वर्षाकालीन-सत्र में पेश किया जाये जो आठ सितम्बर को समाप्त होने जा रहा है. लेकिन मंत्रिमंडल में बैठे धुरंधरों के विरोध के चलते इस पर कोई सहमति न बन पाने के कारण अब इस विधेयक का वर्तमान स्वरुप में पेश हो पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन दिखाई देता है. इसे राष्ट्रीय खेल अधिनियम की भ्रूण हत्या कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी.
विनायक शर्मा


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