Thursday, October 20, 2011

चक्रव्यूह की रचना स्वयं के लिए नहीं होती ....

( यह लेख दैनिक "आपका फैसला " में २७-२८ अगस्त २०११ को प्रकाशित हो चुका है )
सरकार एक बार पुनः अपने स्वयं के बुने हुए मकडजाल में उलझ कर रह गई है.  अन्ना के समर्थन में दिल्ली में इतना बड़ा जन-सैलाब और देश-विदेश से इतना जन-समर्थन मिलेगा ऐसा उसे तनिक भी अंदेशा न था. योगगुरु और अन्ना में अंतर उसे समझना चाहिए था. योगगुरु के समर्थक  धार्मिक  प्रकृति के हैं और अन्ना के साथ शहर का पढ़ा लिखा तबका अधिक है. एक ओर जहाँ बडबोले योग गुरु अधिकतर फैसले स्वयं लेते हैं वहीँ दूसरी ओर अन्ना और परिपक्व सिविल सोसाइटी का संयुक्त निर्णय होता है. एक ही मार्ग और मंजिल के लिए दो अलग-अलग नेतृत्व में चलने वाले समर्थक आज अन्ना की शक्ति बन सरकार के लिए न केवल सरदर्द बन गए बल्कि सरकार को झुकने  के  लिए  भी मजबूर कर दिया.
सिविल-सोसाइटी द्वारा जन-लोकपाल कानून बनाने के लिए लिखा गया प्रारूप, संयुक्त प्रारूप समिति द्वारा अक्षरशः न स्वीकार किये जाने के पीछे सरकार चाहे जितने प्रक्रियात्मक कारण या बहाने बताये, मुझ जैसे कॉमन-सोसाइटी के एक सदस्य की समझ से वह सब परे ही हैं. कम बोलने वाली कॉमन-सोसाइटी सब समझती है. लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की दुहाई, संविधान द्वारा प्रदत्त विधायिका और उसके कर्तव्यों व अधिकारों के अतिक्रमण के आरोप उसके गले नहीं उतरते. कॉमन-सोसाइटी समझती है कि इस जन-लोकपाल बिल की मांग उसके लिए नहीं वरन विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में बढ़  रहे  भ्रष्ट-आचरण पर अंकुश लगाने के लिए ही की जा रही है. इन लोगों ने भ्रष्ट-आचरण के द्वारा अकूत धन-सम्पदा कमा विदेशी-बैंकों तक में जमा कर रखी हैं. कॉमन-सोसाइटी का तो अपने गावं या करीब के शहर के अतिरिक्त शिमला या दिल्ली के किसी बैंक में खाता ही नहीं होता, विदेशी बैंकों में  खातों  की बात तो उसके  लिए  दिव्यस्वप्न  ही  है .
भ्रष्टाचार में तो केवल तीन किस्म के ही लोग लिप्त हो सकते हैं. राजनैतिक नेता या उनके सज्जे-खब्बे , सरकारी कर्मचारी व अधिकारी और व्यापारी गण. व्यापारियों की हेरा-फेरी सरकारी तंत्र की  मिलीभगत  के बिना हो नहीं सकती  यानि व्यापारी की हेराफेरी के एवज में तंत्र को हफ्ता या जेब-गर्म. वहीँ दूसरी ओर जनप्रतिनिधि और राजनैतिक नेता जिसमे मंत्री तक आते है व बड़े नौकरशाहों व कर्मचारियों का माफिया. यह माफिया मोटा माल खाते हैं जैसे ऐ.राजा, कनिमोझी , कलमाडी, येदुरप्पा और प्रसार-भारती के निलंबित पूर्व-प्रमुख बीएस लाली आदि. इन की तिहाड़-यात्रा भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वयं जाँच की निगरानी करने या लोकायुक्त की रिपोर्ट के बाद ही पद से त्यागपत्र संभव हुआ. यह तो स्पष्ट है कि जनप्रतिनिधि और मंत्री आदि ही इस देश में आकंठ भ्रष्टाचार के पोषक हैं. इन्हीं के संरक्षण में भ्रष्टाचार न केवल फला-फूला बल्कि वह स्वयं भी इसमें लिप्त होते हैं. लोकतंत्र के जिस मंदिर " संसद " की यह आज दुहाई देते फिर रहे है वह तो कब का इनके कृत्यों से अपवित्र हो चुका है. वोट के बदले नोट और " संसद में सवाल के बदले नोट " जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं. लोकतंत्र  के  मंदिरों  में  बैठने  वाले  हमारे यह जनसेवक आज स्वयं  को  हमारा  भाग्य-विधाता  समझने  लगे  हैं .
कॉमन-सोसाइटी को लगता है कि हमारे जन-सेवक भारतीय ईतिहास से कम और धार्मिक शास्त्रों से अधिक सबक लेते हैं. महाभारत में चक्रव्यूह और अभिमन्यु की कथा हम सभी जानते हैं.  चक्रव्यूह की रचना युद्ध में दुश्मन को घेर कर मारने के लिए की जाती थी. विभिन्न प्रकार से रचे गए चक्रव्यूह में दुश्मन की सैना को तितर-बितर करना तो संभव होता था परन्तु जीवित वापिस लौटना असंभव. अर्जुन पुत्र वीर-अभिमन्यु कौरवों द्वारा रचित चक्रव्यूह को भेदना तो जानता था परन्तु जीवित वापिस लौटने के विषय से पूर्णता अनभिज्ञ था.  इसी कारण वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ. 
महाभारत के जिस उदाहरण को इस देश का बच्चा-बच्चा जानता है उसको हमारे यह वर्तमान भाग्य-विधाता नहीं जानते होंगे, ऐसा सोचना भी बहुत बड़ी मूर्खता होगी. कठोर लोकपाल या लोकायुक्त जैसे बड़े-बड़े अधिनियम भी एक प्रकार से आधुनिक तकनीकी युग के नवीनतम चक्रव्यूह हैं. इनकी रचना विधायिका यानि लोकसभा या विधान सभा में बैठे हमारे यह जन-सेवक या निर्वाचित जन-प्रतिनिधि करते हैं. यह लोग ऐसे चक्रव्यूह की रचना क्यूँकर करेंगे जिसमें इनके स्वयं के फंसने का डर हो युवराज की ताजपोशी की तैयारी में जुटे दरबारियों से मजबूत और कारगर चक्रव्यूह की रचना की आशा करना ही निरर्थक है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वयं चाहने के बावजूद मंत्रीमंडल द्वारा प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल अधिनियम के दायरे से बाहर रखने का जो स्पष्टीकरण दिया जा रहा है वह वर्तमान प्रधानमंत्री की मर्यादा पर कम और आने वाले प्रधानमंत्री पर अधिक अनुकूल बैठता है. लोक सभा की स्थाई समिति को भेजा गया सरकारी लोकपाल अधिनियम का प्रारूप सिविल-सोसाइटी द्वारा सुझाये गए जन-लोकपाल अधिनियम के प्रारूप की अपेक्षा न केवल दंतहीन व कमजोर है बल्कि यह तो  शिकायतकर्ता के मन में एक प्रकार से भय उत्पन्न करता है कि "यदि लगाये गए आरोप सिद्ध न हुए तो तीन वर्ष की सजा हो सकती है. " ऐसे प्रावधानों के चलते कौन शिकायतकर्ता  वीर-पुरुष बन भ्रष्टाचार की वेदी पर शहीद  होने के लिए शिकायत करने का साहस करेगा ?
इन सब के विपरीत तमाम विपक्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध संसद में गर्मी तो खा रहा है परन्तु उसने एक बार भी जन-लोकपाल कानून के पक्ष में एकजुटता नहीं दिखाई. हो सकता है कि यह सब उनकी सोची-समझी किसी रणनीति के तहत ही किया जा रहा हो. संसद में और उसके बाहर, जिस प्रकार से यह तर्क दिए जा रहे हैं कि अन्ना या सिविल-सोसाइटी के नाम पर दस-बीस अनिर्वाचित लोगों का एक समूह सरकार या संसद के अधिकारों का अतिक्रमण करने का प्रत्यन करे तो सांसद यह कतई बर्दाश्त करेंगे. अपने कृत्यों के विरूद्ध उठे आक्रोश के जन-सैलाब को संसद और सांसदों के अधिकारों का अतिक्रमण और लोकतंत्र और संविधान का अपमान बताने  वालों से पलट कर इसी तर्क के साथ यह प्रश्न पूछा जा रहा है कि इस बदले हुए परिवेश में 545 लोगों का समूह कैसे 125 करोड़ जनता की भावनाओं और अधिकारों को बंधुआ बना सकते हैं ? 
देश भर में स्वतः घरों, कार्यालयों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों से निकले  कॉमन-सोसाइटी के आपार जन-सैलाब को देख अब सरकार और चुने हुए इन 545 जन-प्रतिनिधियों को समझ में आ गया होगा कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए रचे जाने वाले  चक्रव्यूह की रचना जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ही करनी होगी. कॉमन-सोसाइटी  संविधान के तहत ही अपने जन-सेवकों का चुनाव करती है, हकूमत करने वाले राजाओं का नहीं. देश की कॉमन-सोसाइटी यदि अपने जन-सेवकों का चुनाव कर सकती है तो नियुक्ति निरस्त करने के अपने अधिकार का प्रयोग करने में भी तनिक संकोच नहीं करेगी, प्रतीक्षा कीजिये ऐसा समय भी शीघ्र ही आने वाला है.   

विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक " विप्र वार्ता "
पंडोह ,मण्डी

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