Thursday, October 20, 2011

क्या मात्र भोजन पर खर्च ही तय करेगी गरीबी रेखा

( यह लेख भी प्रकाशित हो चूका है )
संविधान में दर्शाए गए बराबरी के अधिकार और लाल किले की प्राचीर से की जा रही विगत ६४ वर्षों से घोषणाएं सब की सब धरी की धरी रह गईं . महंगाई और बेरोजगारी की लगातार मार झेल रहा वह हर एक आम आदमी जो विगत ६४ बरसों से गरीबी और भुखमरी की जिन्दगी केवल इस आशा में जी रहा था कि विकास और तरक्की की बयार एक दिन उस तक भी पहुंचेगी. अपनी गरीबी और दयनीय स्थिति से वह सरकार और राजनैतिक नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणाओं के सहारे ही वह एक लम्बे समय से संघर्ष करता चला आ रहा था. और अंततः जिस आस के सहारे देश का सबसे निम्न स्तर का व्यक्ति अभी तक सांसें ले रहा था वह आस भी सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे के साथ ही छूट गई. कारण कि अब सरकारी माप-दण्डों के हिसाब से उसका जीवन स्तर उठ चुका है, उसकी गरीबी दूर हो चुकि है और उसके परिवार का कुपोषण भी दूर हो गया है. रहने के लिए मकान , स्वास्थ्य ,शिक्षा और पहनने के लिए कपडे की तो उसे या उसके परिवार  को आवश्यकता ही नहीं रही है. अब वोह जीवन की सभी चिंताओं से दूर हो गया है. चौकिये मत, हमारे अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाले देश की सटीक , पुख्ता और सर्वांगीण विकास की योजनायें बनने वाले केंद्र सरकार के योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे में गरीबी की रेखा की एक नई परिभाषा गढ़ते हुए कहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रुपये और शहरी क्षेत्र में ३२ रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति  भोजन  पर खर्च करने वाले गरीब नहीं कहे जा सकते इसलिए वह सरकार द्वारा निर्धारित गरीबी की रेखा से ऊपर माने जायेंगे यानि अब वह अमीर हो गए.
इस प्रकार का हलफनामा देने से पूर्व योजना आयोग ने क्या संसद की कैंटीन का दौरा किया था हमारे इन जन-प्रतिनिधियों को वहाँ रेलवे बोर्ड द्वारा संचालित कैंटीनों में जिस दर पर भोजन व अन्य  खाद्य पदार्थ मिलते है, उस हिसाब से हो सकता है कि हमारे यह जन-प्रतिनिधि ही गरीबी की रेखा से नीचे आ जायें. 
योजना आयोग ने गरीबी की इस नई परिभाषा को तय करते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का लेखा-जोखा दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है.  रिपोर्ट में अंत में यह भी कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी. विधित हो कि  उच्चतम न्यायालय ने गत 29 मार्च को 2004 के लिए निर्धारित मानदंडों के आधार पर वर्ष 2011 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों का निर्धारण करने पर मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था. कोर्ट ने योजना आयोग की सिफारिशों के आधार पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की आबादी 36 प्रतिशत होने के सरकारी दावों पर सवाल उठाते हुए सरकार से इसका विवरण माँगा था. अब सरकार के हलफनामे के अनुसार शहरी क्षेत्रों में ३२ और ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रुपया प्रतिदिन भिजन पर खर्च करनेवाला व्यक्ति गरीब नहीं कहा जा सकता. जबकि इन सब के ठीक विपरीत वर्ल्ड बैंक, जिसे आम आदमी का हितैषी नहीं समझा जाता है क्यूंकि वह अपने निवेशकों का हित अधिक सुरक्षित रखता है, ने भी गरीबी की रेखा के लिए २ डालर प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति निर्धारित किये हैं जो कि लगभग ९५ से ९८ रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति बैठता है. यह राशि उसने सारी दुनिया के लिए निर्धारित की है.  

इस हास्यास्पद परिभाषा पर आम जनता, विपक्षी दलों और स्वयं योजना आयोग के कई सदस्यों को भी ऐतराज है. वास्तविकता से कहीं दूर इस विवादित  रिपोर्ट के अनुसार, एक दिन में एक आदमी यही 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे रसोई गैस व अन्य ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है. इसी के साथ यदि एक व्‍यक्ति 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा. केंद्र सरकार और देश की तमाम योजनाओं को मूर्त रूप देने वाले इस के आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवा पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं.  शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो इसका अर्थ है कि आप या आपका परिवार शिक्षा ग्रहण की ओर अग्रसर है और आप केद्र सरकार के इस योजना आयोग की निगाह में गरीब तो कतई भी नहीं कहे जा सकते. सरकार के इस निर्णय की सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता  कॉलिन गोंजाल्विस ने भी आलोचना की है. उनका कहना है कि इससे गरीब बीपीएल कार्ड व अन्य आवश्यक सरकारी सुविधाओं से वंचित हो जायेंगे.  उन्हें सरकारी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी नहीं मिलेगी क्योंकि सरकार की नजर में वे गरीब नहीं रह जायेंगे.
देश की जनता जहाँ एक ओर भुखमरी और बेरोजगारी से त्रस्त है वहीँ दूसरी ओर केन्द्र की यूपीए सरकार के अजीबो-गरीब फैसले जनता को महंगाई की मार झेलने मजबूर कर रहे हैं. विगत दो वर्षों में सरकार के फैसलों से रोजमर्रा की जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं के दाम अपनी चरम सीमा हैं. एक ओर पेट्रोलियम कंपनियों का पूर्व का घाटा पूरा करने के लिए सरकार सब्सिडी बंद कर रही है वहीँ दूसरी ओर विगत 10 सालों में देश के कारपोरेट घरानों को 22 लाख करोड रूपये ( टेक्स आदि में छूट के माध्यम से ) दे दिया गया. वहीँ सरकार के नवीनतम आकड़े दर्शाते हैं की देश के लगभग 44 प्रतिशत किसान अब खेती का काम करना नहीं चाहता जिस के कारण देश के खेतिहर खेती से किनारा कर मजदूरी कर रहे है. देश का लगभग 50 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ से दबा हुआ है और कर्ज न चुका पने के कारण हर 30 वे मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. इन्हीं सब कारणों के परिणामस्वरूप देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता में गिरावट निरंतर जारी है.
यदि अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट पर विश्वास किया जाये तो देश के 83.7 करोड़ लोग रोजाना 20 रुपये से भी कम कमाते हैं. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 66 वाँ स्थान है जिसके चलते भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 20 करोड़ है. जबकि वास्तविक स्थिति इससे भी बदतर बताई जाती है. एक ओर जहाँ देश की तक़रीबन 77 प्रतिशत आबादी भुखमरी की शिकार है, वहीँ अब हजारो टन अनाज सरकारी गोदामों में रखरखाव की लापरवाही से या भ्रष्टाचार के चलते कागजों में ही सडा दिए जाते है. भ्रष्टाचार के मामलों में विश्व के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87 वे स्थान पर है. इतना ही नहीं देश की 50  प्रतिशत आबादी रिश्वत के जरिये काम करने या करवाने को विवश है. स्विट्जरलैंड के आंकड़ों के अनुसार भारत का 66,000 अरब रुपए(1500 बिलियन डॉलर) काला धन के रूप में स्विस बैंक में जमा है. वाशिंगटन में हुए एक अध्ययन के अनुसार भारत ने स्वतंत्रता के बाद से 2008 तक 20,556 अरब रुपए (462 बिलियन डॉलर) भ्रष्टाचार, अपराध और टैक्स चोरी के कारण गंवाया है.
कहाँ तक और किस-किस बात का रोना रोया जाये. सरकार के पास संवेदनशीलता नाम की कोई चीज दिखाई नहीं देती. मगरूर सरकार को अपने हर गलत फैसलों पर अड़ना और हमारे इन जन-प्रतिनिधियों को अपने विशेषाधिकारों के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता. देश के जन-मानस के समान-नागरिकता, समान-मानवता और समान-जीने के अधिकार के विषय में यदि समय रहते चिंतन कर सार्थक उपाय नहीं किये गए तो विवश हो समय आने पर यह जनता अपने मताधिकार का प्रयोग कर ऐसा झाड़ू फेरेगी कि......बस धो कर ही रख देगी !

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