(यह लेख अमर ज्वाला में प्रकाशित हो चुका है)
लोकतंत्र में संसद ही सर्वोपरी है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, परन्तु क्या संसद में जन-आकाक्षाओं और जन-कल्याण के मुद्दे भी ठीक उसी तरह बिना विलम्भ उतने ही समय में पारित नहीं होने चाहिए जितने समय में सांसदों के वेतन-भत्ते बढाने के बिल या राजनैतिक दलों के हित के बिल ? 42 वर्षों तक लोकपाल कानून क्यूँ नहीं पारित हो सका, क्या जनता को यह भी जानने का अधिकार नहीं है? सरकार और राजनैतिक दलों के मगरूर, नकारात्मक और अड़ियल रवैया के चलते ही जन-लोकपाल बिल के लिए अन्ना के अनशन पर बैठते ही न केवल रामलीला मैदान बल्कि समस्त देश में ऐसा आपार जन-सैलाब सड़कों पर उमड़ पड़ा जिसकी देश को तो आशंका थी परन्तु सरकार और शासक दल को कतई नहीं. सरकार और सिविल-सोसायटी के बीच खींचतान किसी से छिपी नहीं है. संयुक्त प्रारूप कमेटी की कुल नौ बैठकों में भी दोनों पक्षों में आरोपों-प्रत्यारोपों और तनातनी का दौर जारी रहा और नतीजा शून्य. सत्ता की सर्वोच्चता साबित करने और हठधर्मी के चलते सरकारी पक्ष ने सिविल-सोसायटी की आपत्तियों और सुझावों को रत्ती भर भी तवज्जो नहीं दी और वही किया जो उसने सुनिश्चित किया हुआ था. प्रश्न है कि यदि सरकार ने अपनी जरूरत और पसंद का ही कानून बनाना था तो उसने संयुक्त मसौदा कमेटी के गठन की क्या जरूरत थी? आज समस्त देश में सरकारी बिल का विरोध हो रहा है. अन्ना, अनशन और जन-लोकपाल बिल ही देश की जुबान पर है. देश का आपार जन-मानस जन-लोकपाल बिल के प्रारूप को ही भ्रष्टाचार-उन्मूलन के लिए श्रेष्ठ मान, पारित कर कानून बनाए की मांग को लेकर सड़कों पर निकल आया है. लेकिन न जाने क्यूँ सरकार किस भय के चलते एक सख्त और सशक्त कानून बनाने से बच रही है? सरकार का इस प्रकार का अड़ियल रवैया जन-मानस के मन में चिंता के साथ अनेकों प्रकार के शंशय उत्पन्न कर रहा है.
सिविल-सोसायटी और सरकार में कुल मिलाकर छह महत्वपूर्ण बिंदुओं जिनमें लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, निचली न्यायपालिका को लाए जाने आदि को लेकर गहरे मतभेद हैं और सरकार अपने पक्ष के पीछे संविधान की मूल भावना को आहत न करने का कारण बता रही है. एक कठोर लोकपाल कानून बनाने के लिये ही संयुक्त प्रारूप कमेटी का गठन किया गया था. सैद्धांतिक रूप से सरकार ने ही वादाखिलाफी की है. आखिरकार सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने आनन-फानन में एक कमजोर और नकारा बिल संसद में पेश कर किया. बिल पेश करने की जल्दबाजी और हडबडाहट सरकार की नीयत और नीति में खोट दर्शाती है. लगता है कि सरकार के पास अपनी किरकिरी करवाने वाले चंद मंत्रियों और नेताओं के अतिरिक्त और कोई प्रतिनिधी है ही नहीं. स्तिथि बिगाड़ने वाले वही मोहरे जो जायज-नाजायज गले से न उतरने वाले बहानों के साथ जनता में एक खीज और आक्रोश पैदा करते हैं. कभी कोई 4 माह का समय मांगने की बात करता है तो दूसरा शीत-कालीन में बिल को पेश करने की बात करता है. स्थाई-समिति के अध्यक्ष सिंघवी चौंकाने वाली बात कर के समय मांगते हैं. लेकिन इस देश की आम जनता को मात्र तीन प्रश्नों का उत्तर यदि सरकार या उसके पैरवीकार दे दें तो समय सीमा बढ़ाने की बात वह समझ सकेंगे.
सिविल-सोसायटी और सरकार में कुल मिलाकर छह महत्वपूर्ण बिंदुओं जिनमें लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, निचली न्यायपालिका को लाए जाने आदि को लेकर गहरे मतभेद हैं और सरकार अपने पक्ष के पीछे संविधान की मूल भावना को आहत न करने का कारण बता रही है. एक कठोर लोकपाल कानून बनाने के लिये ही संयुक्त प्रारूप कमेटी का गठन किया गया था. सैद्धांतिक रूप से सरकार ने ही वादाखिलाफी की है. आखिरकार सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने आनन-फानन में एक कमजोर और नकारा बिल संसद में पेश कर किया. बिल पेश करने की जल्दबाजी और हडबडाहट सरकार की नीयत और नीति में खोट दर्शाती है. लगता है कि सरकार के पास अपनी किरकिरी करवाने वाले चंद मंत्रियों और नेताओं के अतिरिक्त और कोई प्रतिनिधी है ही नहीं. स्तिथि बिगाड़ने वाले वही मोहरे जो जायज-नाजायज गले से न उतरने वाले बहानों के साथ जनता में एक खीज और आक्रोश पैदा करते हैं. कभी कोई 4 माह का समय मांगने की बात करता है तो दूसरा शीत-कालीन में बिल को पेश करने की बात करता है. स्थाई-समिति के अध्यक्ष सिंघवी चौंकाने वाली बात कर के समय मांगते हैं. लेकिन इस देश की आम जनता को मात्र तीन प्रश्नों का उत्तर यदि सरकार या उसके पैरवीकार दे दें तो समय सीमा बढ़ाने की बात वह समझ सकेंगे.
1. अ.न.चावला बनाम अमरनाथ गुप्ता ( 1975 (3) S.C.C. 646 ) के फैसले के बाद रातों-रात क्यूँकर अध्यादेश जारी किया गया जिसे बाद में लोकसभा में चुनाव संशोधन कानून बिल के रूप में पास किया गया था. प्रश्न है कि क्या इसी प्रकार से वहाँ भी संसदीय प्रक्रियाओं और अन्य सभी प्रक्रियाओं को तरजीह दी गई थी ?
2. सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने वाले बिल को पारित करवाने में कुल कितना समय लगा था ?
3. 2011 में सांसद-निधी बढ़ाने का बिल कितनी देर में पास हुआ था ?
3. 2011 में सांसद-निधी बढ़ाने का बिल कितनी देर में पास हुआ था ?
अपना वेतन, सांसद-निधि और अपनी सरकार को बचाने के लिए कोई भी अध्यादेश या प्रस्ताव मात्र दस मिनटों में पारित हो सकते हैं तो लोकपाल का कानून क्यूँ नहीं ? सरकार का यह तर्क है कि जन-लोकपाल बिल को स्वीकार करने से संविधान की मूल भावना को ठेस पहुचेगी. सरकार क्यूँ नहीं जन-लोकपाल बिल से अपनी असहमति को तथ्यों के साथ आम जनता के सामने एक खुली बहस में रखती. सारा देश असलियत जानना चाहता है और यह उसका अधिकार भी है. किसी भी अधिनियम के प्रारूप को सरकार चाहे किसी से भी लिखवा सकती है परन्तु उसे संसदीय प्रणाली के तहत तयशुदा माध्यम से ही गुजर कर ही लोकसभा में पारित होने के लिए जाना पड़ेगा और संसद द्वारा पारित किये जाने के पश्चात ही वह अंततः कानून की शक्ल लेता है, यह तो हम सभी जानते हैं. परन्तु क्या लोकसभा में प्रस्तुत सभी बिलों को ऐसी ही प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है ? नहीं ऐसा नहीं होता, तो जन-लोकपाल कानून के लिए मात्र समय बिताने के लिए सरकार ऐसा कह रही है.
सरकारी पक्ष के बयान स्तिथि को और भी हास्यापद बना रहे हैं. सोनिया गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति की सदस्या अचानक अपने साथियों के साथ 5 लोकपाल के बिलों के प्रारूप लेकर अवतरित हो जाती हैं. प्रश्न उठना लाज़मी है कि इससे पूर्व उनके प्रारूप कहाँ थे? फिर स्थाई-समिति के अध्यक्ष का बयान कि एक संतुलित कानून बनायेंगे.....का क्या अर्थ निकलता है ? आकंठ भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए एक शशक्त, कठोर, पारदर्शी और सरकारी नियंत्रण से मुक्त लोकपाल कानून ही इस समय देश की आवश्यकता है. देश को समझना होगा कि कानून का निर्माण अपराध को रोकने के लिए और अपराध करने वालों को दण्डित करने के लिए बनाया जाता है न कि किसी समझौते के तहत सभी पक्षों को संतुष्ट करने के लिए. सरकार ने जिस प्रकार के लोकपाल अधिनियम के प्रारूप को तैयार किया है उसका होना या न होना बराबर ही है. ऐसा कानून सरकारी भ्रष्टाचार के उन्मूलन के विपरीत भ्रष्टाचार की शिकायत करने वालों के मन में ही भय पैदा करता है. स्थाई समिति के समक्ष जिस बिल को रखा गया है उसे देख उसमें संशोधन की नहीं बल्कि पूर्ण रूप से पुनः निर्माण की आवश्यकता है, वह भी इस रूप में कि वह जन-लोकपाल बिल से बेहतर साबित हो. सरकारी बिल में तो सरकारी भ्रष्टाचार से ध्यान हटा कर उलझाने की नियत से सामाजिक कार्यों में लगी गैर-सरकारी संगठनों, जो सरकार से एक पैसा तक नहीं लेती, को लोकपाल के दायरे में लाने की बात कही गई है. इस तर्क से तो सभी राजनैतिक, धार्मिक संस्थाएं और आम-व्यक्ति भी लोकपाल के दायरे में आ जाते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह भारतीय दंड सहिंता की धारा 420 में सरकारी या गैर सरकारी सभी तरह की धोखाधड़ी के मामले. इतना ही नहीं जिस तर्क से प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की बात की जा रही है कि वही तर्क राज्यों के मुख्यमंत्रीयों और नगरपालिकाओं, नगरपरिषदों और ग्राम-पंचायतों के प्रधानो पर भी क्यूँकर लागू नहीं होता है. फिर तो इन्हें भी लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखना चाहिए. आखिरकार हमारी लोकतान्त्रिक संसदीय प्रणाली के तहत ही तो यह सभी मिनी-संसद कहलाती हैं. हमें यह भी समझना होगा कि भ्रष्टाचार एक अपराध है और उसके लिए अलग व्यक्ति के लिए अलग कानून और अलग व्यवस्था नहीं चल सकती.
कुछ लोग अन्ना के अभियान को ब्लैकमेल व संवैधानिक लोकतंत्र के कामकाज में अड़चन पैदा करने वाला बता रहे हैं. उनका यह तर्क निहायत ही गलत अवधारणा पर खड़ा है. अन्ना का आन्दोलन पूर्ण रूप से संवैधानिक, लोकतान्त्रिक, अनुशासित और गांधीवादी है. यह किसी दल या नेता या सरकार के विरूद्ध न होकर, विशुद्ध रूप से देश में चल रही एक सामानांतर व्यवस्था जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं, के विरुद्ध है. आज आवश्यकता है कि हम सभी दलगत राजनीति के दलदल से निकल कर ठीक उसी प्रकार एकमत हो एकता के सूत्र में बन्ध कर एक कठोर लोकपाल कानून पारित करने का मार्ग प्रशस्त करें जिस प्रकार देश पर हमला होने पर हम सभी एकमत हो दुश्मन का सामना करते हैं.
विनायक शर्मा
राष्ट्रीय संपादक " विप्र वार्ता 

No comments:
Post a Comment